Book Title: Jain Dharmvar Stotra
Author(s): Bhavprabhsuri, Hiralal R Kapadia
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 158
________________ श्रीभावप्रभसरिकृतः ॥ सभाचमत्कारः॥ (गूर्जरगिरा गुम्फितः) मरुदेवीनो लाडलो नाभि राय कुलचंद । शत्रुजय शिखरे नमो भावे ऋषभ जिणंद ॥१॥ परमाहत आदी भली सुलसा रेवति जेह । जिनशासन अनुरागिणी सर्व श्राविका एह ॥२॥ गमने गजपति हारिओ गज लंछन जस पाय । बीजो जिनवर वंदिये अजित नाम कहाय ॥३॥ देवी माता जनमीओ अरै नामे अरिहंत । सरण करतां जेहनुं सुन्दर काम सरंत ॥ ४॥ सुरनरनायक जेहस्युं धारइं छई अति प्रीत । सांभलि सुन्दर! ताहरे संभवे जिन छे चित्त ॥५॥ चार अतिशय जन्मना केवल तणा अग्यार । ओगणीश देवतणा कर्या श्रीश्रेयांस उदार ॥६॥ चंचल मन जीत्यु इणिं इम चिंतवि कपिराय । लंछनमसिं आवी रह्यो अभिनन्दन जिनराय ॥७॥ दीपे जेहनी देहडी मेघघटा अनुमान । राजिमती जीवनजडी नेमनार्थं भगवान् ॥८॥ दुरमति मनथी मुंकइं आणो सुमति स्वभाव । सुमति जिणेसर सेविइं भवजल तारण नाव ॥९॥ भेंसो लंछन जेहने राती जेहनी काय । वासुपूज्य जिन प्रणमिइं आनंद अंग न माय ॥१०॥ चित आरती दूरे करें पूरे वंछित काम । छट्टो जिनवर सेविइं पद्मप्रभ ए नाम ॥११॥ लोक रीत छे एहवी जे वाहलां कहिवाय । अंतरंग जे राखिइं मल्लिप्रभु सुखदाय ॥ १२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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