Book Title: Jain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Author(s): Hirabai Boradiya
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 8
________________ लेखकीय तोर्थंकर महावीर के २५००वें निर्वाणोत्सव की बेला में मन में यह भाव सहज ही जागृत हुआ कि युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा भगवान् महावीर के उपदिष्ट आगमों में नारी का क्या स्थान और मूल्य रहा है-इसे समझा जाये । इसी आन्तरिक जिज्ञासा ने मुझे जैनधर्म के नारी-इतिहास की ओर मोड़ दिया। ___ महावीर जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर हुए हैं, इनके सम्बन्ध में आचार्य विनोबा भावे ने अत्यन्त मार्मिक शब्दों में अपना मत प्रगट करते हए लिखा है, "महावीर के धार्मिक सम्प्रदाय में स्त्री-पुरुषों का किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं किया गया है। पुरुषों को जितने आध्यात्मिक अधिकार प्राप्त हैं, महिलाओं को भी वे सब अधिकार प्राप्त हो सकते हैं। इन आध्यात्मिक अधिकारों में महावीर ने कोई भेद-बुद्धि नहीं रखी, जिसके परिणामस्वरूप उनके शिष्यों में जितने श्रमण थे, उनसे अधिक श्रमणियाँ थीं और यही प्रथा आज तक जैनधर्म में चली आ रही है।" महावीर ने अपने चतुर्विध संघ में श्रावक एवं श्राविकाओं को भी समान स्थान दिया । उन्होंने स्त्री-पुरुषों में तत्त्वतः कोई भेद नहीं रखा। वे अपने इस निर्णय पर दृढ प्रतिज्ञ रहे। उनके मन में स्त्रियों के लिए एक विशेष आदर था और वास्तव में यही उनकी महावीरता भी थी।' आचार्य विनोबा भावे द्वारा प्रस्तुत नारी के धार्मिक अधिकार के सम्बन्ध में महावीर का यह दृष्टिकोण मेरा प्रेरणा-स्रोत रहा है। एक जिज्ञासु की तरह मन में एक शभ संकल्प आया कि जैनधर्म एवं सांस्कृतिक इतिहास के परिप्रेक्ष्य में प्रथम तीर्थंकर से लेकर बीसवीं सदी तक नारी का क्या स्थान रहा है ? इसको प्रकाश में लाना आवश्यक है। ___ आगम ग्रन्थों में नारी को पुत्री, पत्नी, भगिनी, माता एवं तपस्विनी आदि रूपों में वर्णित किया गया है । जैन साहित्य में वर्णित जैन श्रमणियों एवं श्राविकाओं के जीवन वत्त को एक कालक्रम में शृंखलाबद्ध करके उनका मूल्यांकन करने का लघु प्रयास मैंने इस शोध ग्रन्थ में किया है। १. श्रमण-वर्ष ९, अंक ९, पृ० ३७-३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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