Book Title: Jain Dharma aur Tantrik Sadhna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 7
________________ भूमिका जीवन में शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक या आदिभौतिक व्याधियों के अवसर पर सामान्य जनों का ध्यान तीन परम्परागत शब्दों पर जाता हैमंत्र, यंत्र और तंत्र । उनका विश्वास है कि इन तीनों में से किसी एक या उनके समुच्चय से संसार की सारी बाधायें मिट सकती हैं और सुख प्राप्त हो सकता है। इनमें से सभी पद्धतियों में 'मंत्र' शब्द बहुत प्रचलित है। अंतिम दो शब्द और उनसे संबंधित प्रक्रियायें, प्राचीन युग से ही कम प्रचलित हैं। पर ऐसा प्रतीत होता है कि ये तीनों शब्द एक-दूसरे से संबंधित हैं, संभवतः एक-दूसरे के पूरक और घटक भी हैं। इनमें मंत्र और उनके प्रभावों की क्रियाविधि प्रायः सभी भारतीय दर्शन-तंत्रों में न केवल सुज्ञात है अपितु उस पर अनेकों ग्रन्थ भी लिखे गये हैं। जैनों में ही लगभग ४० ग्रन्थ मंत्र शास्त्र पर हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मंत्रों के पूर्व स्तोत्रों की परम्परा रही होगी, क्योंकि सर्वप्रथम स्तोत्र "उवसग्गहर स्तोत्र" की रचना भद्रबाहु ने ४५६ ईसा पूर्व की थी। स्तोत्र भक्तिवाद एवं आत्मसमर्पण के प्रतीक हैं, पुरुषार्थ के नहीं। अतः पुरुषार्थी बुद्धिजीवियों ने "मंत्रों' की परम्परा प्रारम्भ की होगी जिसमें स्वयं की साधना से शक्ति जागरण होता है। यह स्तोत्रों की तुलना में अधिक आकर्षक सिद्ध हुई। इससे व्यक्ति स्वयं ईश्वरत्व प्राप्त कर सकता है। अन्य पद्धतियों की तुलना में, जैनों के बहुतेरे धार्मिक या क्रियात्मक अनुष्ठानों में "यंत्र" एवं उनसे संबंधित क्रियायें भी प्रचलित हैं। मंत्र सिद्धि में भी यंत्रों का उपयोग किया जाता है। इसके विपर्यास में, जैनों में 'तंत्र' शब्द का प्रचलन नगण्य सा है। साथ ही, जो है भी, वह पर्याप्त उत्तरवर्ती माना जाता है। यह मध्यकालीन शैव-शाक्त धाराओं का प्रभाव तो है ही, सोमदेव के काल में "यत्र सम्यक्त्व हानिर्न, यत्र न व्रतदूषणं' के सिद्धान्त पर आधारित लौकिक विधियों के स्वीकरण का प्रतिफल भी है। मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में तंत्र भी मंत्रों में ही समाहित थे। किन्तु कालान्तर में जब अध्यात्म शक्ति के प्रतीक बन गये तो तंत्र भौतिक क्रियाओं के समुच्चय के रूप में उनसे पृथक् हो गये। यह पृथक्करण सातवीं-आठवीं सदी में माना जाता है। फिर भी "तंत्र" शब्द प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मन्त्र और यंत्रों से संबंधित है। इस प्रकार जैन पद्धति में मंत्र, यंत्र और तंत्र तीनों को अन्योन्य संबंधित माना जाता है। लेकिन उनके लक्षणों में अंतर है। जहाँ मंत्र मानसिक क्रिया प्रधान है, वहाँ यंत्र बीजाक्षरों एवं आकृतियों पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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