Book Title: Jain Dharma aur Tantrik Sadhna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 5
________________ प्रकाशकीय आज के इस वैज्ञानिक युग में भी जनसाधाण की मन्त्र-तन्त्र के प्रति आस्था में कोई कमी नहीं आई है। आज भी न केवल जनसाधारण बल्कि शिक्षित वर्ग भी तान्त्रिकों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते देखा जाता है। इसके दो कारण हैं-प्रथम तो यह कि विज्ञान के माध्यम से सूक्ष्म शक्तियों की महत् कार्य क्षमता का उद्घाटन हुआ है और उसके परिणाम स्वरूप सूक्ष्म तान्त्रिक शक्तियों के प्रति पुनः आस्था का विकास हुआ है। दूसरे, भौतिक उपलब्धियों के प्रति मनुष्य की ललक पूर्व की अपेक्षा आज अधिक सक्रिय हो गई है और तन्त्र ही वह मार्ग है जिसमें धर्म साधना के आवरण में इन भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति संभव है। पुनः तान्त्रिक साधना मात्र भौतिक ऐषणाओं की पूर्ति का ही माध्यम नहीं है अपितु उसका एक आध्यात्मिक पक्ष भी है और आज विद्वद्वर्ग में उसके इस आध्यात्मिक पक्ष के उद्घाटन के लिए एक जागरूकता आई है। फलतः तान्त्रिक साहित्य के प्रकाशन और अध्ययन के क्षेत्र में विद्वद्वर्ग ने प्रयत्न प्रारम्भ किए हैं। भारतीय तान्त्रिक परम्पराओं में हिन्दू और बौद्ध परम्पराओं के साथ-साथ जैन परम्परा का भी अपना एक विशिष्ट स्थान है। वस्तुतः जैन परम्परा में तन्त्र को वाम मार्ग की विकृत साधना से बचाने का प्रयत्न कर उसके आध्यात्मिक पक्ष को सुरक्षित रखा गया है। तन्त्र के प्रति शोधपरक अध्ययन हेतु बढ़ती हुई इस रुझान का एक परिणाम यह भी हुआ कि इस विषय को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर अनेक संगोष्ठियों का आयोजन हुआ। इसी क्रम में एक संगोष्ठी धर्म आगम विभाग, धर्म और दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा पार्श्वनाथ विद्यापीठ की सहभागिता में आयोजित की गयी। संगोष्ठी के निमित्त डा० सागरमल जैन ने जैन तन्त्र पर जो आलेख तैयार किया था, उसी को विकसित कर उन्होंने जैन तन्त्र को समग्ररूप से प्रस्तुत करने हेतु इस ग्रन्थ का प्रणयन किया है। हम डा० सागरमल जैन के आभारी हैं जिन्होंने इस विद्या पर यह ग्रन्थ लिखकर हमें प्रकाशनार्थ दिया। इस ग्रन्थ के प्रूफ संशोधन, एवं प्रकाशन सम्बन्धी व्यवस्थाओं में सहभागी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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