Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 2
________________ प्रकाशक सर्व सेवा संघ प्रकाशन राजघाट, वाराणसी विषय धर्म संस्करण निवेदन प्रथम मुद्रक भार्गव भूषण प्रेस, वाराणसी २३/४-७४ विज्ञान ने दुनिया छोटी बना दी, और वह सब मानवों को नजदीक लाना चाहता है। ऐसी हालत में मानव-समाज संप्रदायों में बंटा रहे, यह कैसे चलेगा? हमें एक-दूसरे को ठीक से समझना होगा। एक-दूसरे का गुणग्रहण करना होगा। ___अतः आज सर्वधर्म-समन्वय की आवश्यकता उत्पन्न हुई है। इसलिए गौण-मुख्य-विवेकपूर्वक धर्मग्रंथों से कुछ वचनों का चयन करना होगा। सार-सार ले लिया जाय, असार छोड़ दिया जाय, जैसे कि हम संतरे के छिलके को छोड़ देते हैं, उसके अन्दर का सार ग्रहण कर लेते हैं। इसी उद्देश्य से मैंने 'गीता' के बारे में अपने विचार 'गीताप्रवचन' के जरिये लोगों के सामने पेश किये थे और 'धम्मपद' की पुनर्रचना की थी। बाद में 'कुरान-सार', 'ख्रिस्त-धर्म-सार', 'ऋग्वेदसार', 'भागवत-धर्म-सार', 'नामघोषा-सार' आदि समाज के सामने प्रस्तुत किये। मैंने बहुत दफा कहा था कि इसी तरह जैन-धर्म का सार बतानेवाली किताब भी निकलनी चाहिए। उस विचार के अनुसार यह किताब श्री जिनेंद्र वर्णीजी ने तैयार की है। बहुत मेहनत इसमें की गयी है। यह आवृत्ति तो सिर्फ विद्वद्जन के लिए ही निकाली जा रही है। यह पहले कोई एक हजार लोगों के पास भेजी जायगी। उनमें जैन लोग भी होंगे, और दूसरे लोग भी होंगे। वे अपने-अपने सुझाव देंगे। फिर उन सबकी एक 'संगीति' बुलायी जायगी। सब इकट्ठा बैठकर इस पर चिन्तन-मनन, चर्चा आदि Title : Jain Dharma Sara. Publisher : Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat, Varanasi. Subject : Jainism Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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