Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 4
________________ प्रकाशकीय प्रस्तुत पुस्तक मूल गुजराती मे प्रकाशित हुई थी। दो वर्ष के भीतर उसका पहला सस्करण समाप्त हो गया और पाठको की माग को देखकर दूसरा सस्करण करना पडा । हमे हर्ष है कि इस लोकोपयोगी पुस्तक का हिन्दी सस्करण 'मंडल से प्रकाशित हो रहा है। पडित सुखलालजी जैन धर्म तथा दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान है, लेकिन उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी दृष्टि अत्यन्त व्यापक और विचार अत्यन्त स्पष्ट है। समय-समय पर उनके लिखे लेखो के दो सग्रह गुजराती मे 'दर्शन अने चिन्तन' और हिन्दी में 'दर्शन और चिन्तन' के नाम से प्रकाशित हुए है। प्रस्तुत पुस्तक की सामग्री, 'ब्रह्म और सम' लेख को छोड़कर, इन्ही दो पुस्तको से ली गई है । प्रत्येक लेख के साथ पुस्तक का सकेत 'द. अ. चि.' अथवा 'द. औ. चि., के रूप मे कर दिया गया है। गुजराती लेखो का हिन्दी रूपान्तर प्रो० शान्तिलाल जैन शास्त्राचार्य ने किया है। हम उनके आभारी है। हमें हर्ष है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के साथ दिवगत जैनाचार्य श्री विजयवल्लभ सूरी की स्मृति जुड़ी हुई है। आचार्यजी शुष्क क्रियाकांड एव हृदयहीन निवृत्ति के समर्थक नही थे और न ऐसी प्रवृत्ति के, जिसमे मानव की अन्तरात्मा लुप्त हो जाय । उनके जीवन मे दोनो का मुन्दर समन्वय था। ___अपने विषय की यह बड़ी ही सारगर्भित पुस्तक है। हमे विश्वास है कि इस माला की अन्य पुस्तको की भाति यह पुस्तक भी सभी क्षेत्रों और वर्गो मे रुचिपूर्वक पढी जायगी। -मत्री

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