Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 11
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ ૩૧૪ જૈનધર્મ વિકાસ के तरीके भी पृथक २ ही हैं। जैसे भिन्न २ मार्गों के होने पर भी भिन्न २ ग्राम नहीं हो सकते उसी प्रकार अलग २ तरीकों से भी धर्म अलग २ नहीं माना जा सकता है। भिन्न २ शाखा प्रशाखाओं के दृष्टिगोचर होने पर भी अलग २ वृक्ष का भास नहीं होता है, और कमल पंखड़ियां के अलग २ नजर आने पर भी जुदे २ कमल का बोध नहीं होसकता है ऐसे ही धर्म के रहस्य को, उसकी असलीजात को, एवं तत्व को समझने के लिये दया, दान, परोपकार, सत्य, क्षमा, शील आदि भेद किये जाने पर भी वह तो पारेकी तरह एक अखंडरूप में ही रहता है। धर्म के गंभीर तत्वों को सुगम, सरल और सुबोध बनाने के उद्देश्य से अथवा उसके विस्तृत स्वरूप का शान संपादन करने के अभिप्राय से ही प्रकार (भेद) किये जाते हैं। यदि धर्म एक अखंड पदार्थ न होता तो श्रमण भगवान् महावीर का गौतमस्वामी “धम्मसद्धाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ” इस प्रकार का प्रश्न ही क्यों करते ? उक्त प्रश्न से ही धर्म की एकरूपता सिद्ध हो रही है। यह प्रश्न धर्म के भिन्न २ अंगोपांगों को नहीं बतलाता है किंतु शुद्ध धर्म की अखंडता को सूचित करता है । स्वयं भगवान् भी जब गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हैं तो वे भी धर्म की एकरूपता को बताकर ही देते हैं, देखियेः___"धम्म सद्धाए णं साया सोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ, आगारधम्मं च णं चयइ, अणगार धम्मं च पडिवज्जइ, अणगारिए णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयणभेयणसंजोगाईणं वुच्छेयं करेइ अव्वाबाहं च णं सुहं निव्वत्तेइ" ___ अर्थात् हे गौतम ! धर्म पर श्रद्धा रखने से सातावेदनीयजनित पौद्गलिक सुखों का अनुभव करता हुआ उनसे विरक्त होता है, विरक्त होकर ग्रहस्थ जीवन का परित्याग कर देता है और अनगार (श्रमण) धर्म को स्वीकार करता है अनगारावस्था को प्राप्त कर जीव शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को तहस नहस (छेदन भेदन) करडालता है। और अनिष्ट संयोगों का विच्छेद कर देता है। संयोगविच्छेद कर अन्याबाध मोक्ष सुख को प्राप्त करता है । धर्म का फल यावत् मोक्ष है। उक्त प्रश्न के उत्तर में भगवान ने भी धर्म के प्रकार न करके मोगम स्थूल रूप से ही धर्म का फल बतलाया है । धर्म शब्द के अन्तर्गत अहिंसा, सत्यादि सकल अंगोपांगो का समावेश हो जाता है। यदि धर्म कोइ विभिन्न पदार्थ होता तो भगवान् महावीर भी ऐसा ही कहते कि अहिंसा धर्म का फल यह है, सत्य का फल यह है इत्यादि । धर्म का क्षेत्र संकुचित नहीं किंतु बहुत ही विशाल है। धर्म शब्द में आत्मा से संबंधित सकल गुणों का समावेश हो जाता है। इसी शब्द से धर्म की व्यापकता का पता लग जाता है। क्षुद्र या संकुचित विचारों के वशीभूत बनकर अथवा स्वार्थ पोषण एवं द्रव्य शोषण से प्रेरित होकर धर्म को भी वाडेबन्दी में ही परिमित रखना उपयुक्त एवं लोक कल्याणकारी नहीं है। [अपूर्ण]

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36