Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 11
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 25
________________ પધારે પર્વાધિરાજ अंधकार से आवृत हो अपने आपको भुला रहता है तब तक मिथ्या दृष्टि कहलाता है और जिसने अपने स्वरुप को पहिचाना ही नहीं वह उसे प्राप्त करने का प्रयत्न ही क्यों करेगा ? परन्तु जब विवेक बुद्रिके जागृत होने पर आत्माको आत्मरूप ओर परको पररूप समझने लगता है तब सम्यग्दृष्टि कहलाता है उसके इस भेद विज्ञान और तद्रूप-श्रद्धानको ही 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं इस भेद विज्ञान और तद्रप श्रद्धानसे ही जीव मोक्ष प्राप्त करने के लिये समर्थ होते हैं । ठीक ही आचार्य श्रीमद् अमृतचन्द्रजीने कहा है कि भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।। - अर्थात्-अभी तक जितने सिद्ध हो सके हैं वे एक भेद-विज्ञान के द्वारा ही हुए हैं और अभी तक जो संसार में बद्ध हैं-कर्म कारागारमें परतन्त्र हैं वे सिर्फ उसी भेदविज्ञान के अभाव के फलस्वरूप हैं। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का मुख्य लक्षण स्वपरको भेदरूप श्रदान करना हैं । यहां सम्यक् शब्द का अर्थ सच्चा और दर्शन का अर्थ विश्वास-श्रद्धान होता है । जीवात्मा को अपने सच्चे स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए सबसे पहले एकलक्ष्य की आवश्यकता है, फिर शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करने के उपायों का जानना आवश्यक है और इसके बाद आवश्यकता है कि जाने हुए उपायों को कार्य रूप में परिणत करनेकी। जाने हुए उपायों को कार्य रूप में परिणत करने वाले पुरुष भी उसके उस काम में सहायक होते है । उपरोक्त बातों को स्मरण में रखकर ही जैन शास्त्रों में सम्यग्दर्शन का दूसरा लक्षण . यह बतलाया है कि,' ____ अपूर्ण “પધારે પવધિરાજ ગદ્યકાવ્ય "पधारे। पाधि ५५ ५ !" આરાધ્ય પર્વને વધાવતી વદે છે, ભાવમયી શ્રાવિકાઓ અને ભાવભર્યા શ્રાવક સમૂહ જાણે પ્રેમભાવના છાંટતા રસમય ને શીતલ પ્રશમ ઝરણુના અભિસિંચને. પર્વાધિરાજને ચરણે નમતી સુકમળ લત્તાઓ સમી શ્રાવિકાઓ રાસની રમઝટ મચાવે છે, તે સમયે અમાવાસ્યાની અંધારી રાત્રિના અંધકારપટને ચીરતા રમણીય પ્રભા પ્રસારતો પ્રભાકર સમે પધારે છે, પર્વાધિરાજ શાંત મિતવદને; ને ગજરાજ સમા અડગ પગલે. સન્માને છે સવે પધારો, પર્વાધિરાજ પર્યુષણું પર્વ

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