Book Title: Jain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 484
________________ (3) कोहं च माणं च तहेव मायां लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा । एयाणि वंता अरहा महेसी, ण कुव्वई पाव ण कारवेइ ॥ (सूत्रकृतांगसूत्र- 1/6/26) - क्रोध, मान, माया और लोभ- ये चारों ही अन्तरात्मा के दोष हैं। महर्षि - समदर्शी साधक इन दोषों को हटा दे। इनके वश होकर पाप कार्य न करे, न कराए। (4) काम एष क्रोध एष, रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा, विद्वयेनमिह वैरिणम् ॥ (गीता - 3/37 ) - रजोगुण से उत्पन्न हुए काम एवं क्रोध महाभक्षी - 'सद्गुणों को निगल जाने वाले, ' महापाप्मा - 'बड़े-बड़े पाप-कार्यों में प्रवृत्त करने वाले' हैं। इन्हें अपना शत्रु समझो। (क्षमा के सुपरिणाम) (5) खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ । - (उत्तराध्ययन सूत्र - 29/18) क्षमा करने से व्यक्ति को मानसिक प्रल्हाद (प्रसन्नता) की उपलब्धि होती है। (6) क्षमा गुणो हि जन्तूनाम्, इहामुत्र सुखप्रदः । क्षमा प्राणियों का एक ऐसा गुण परलोक में भी सुख प्रदान करता है। 'आपस्तम्ब स्मृति, -10/5) संसार में और

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