Book Title: Jain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 498
________________ -ऐसी कोई जाति, योनि, स्थान और कुल नहीं, जहां जीव अनेक बार न जन्में हों और न मरे हों। (3) एवं चयदि सरीरंअण्णं गिण्हेदिणवणवं जीवो। पुणु पुणुअण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहुवारं॥ (द्वादशानुप्रेक्षा-32) - जीव एक शरीर को छोड़ता है और फिर नये शरीर को ग्रहण करता है, इस प्रकार फिर अन्य-अन्य नये-नये शरीरों को कई बार ग्रहण करता और छोड़ता है। (4) अण्णे कुमरणमरणंअणेयजम्मंतराइ मरिओसि। (भावप्राभृत, 32) - हे जीव! इस संसार में तूं अनेक जन्मान्तरों में कुमरण से मृत्यु को प्राप्त होता रहा है। (5) बहूनि मे व्यतीतानि, जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि, न त्वं वेत्थ परन्तप॥ (गीता-4/5) शत्रु-विजेता अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म व्यतीत हुए हैं। (ज्ञान के निरतिशय उद्भास से) मैं उन्हें जानता हूं, तुम (अज्ञान आवृत होने के कारण) उन्हें नहीं जान पाते। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही। (गीता-2/22)

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