Book Title: Jain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 505
________________ MM जीवात्मा और परमात्मा- दोनों आत्मतत्त्व दृष्टि से समान हैं, किन्तु दोनों का स्वरूप एक दूसरे से विशिष्ट है। 'परमात्मा' शब्द ही यह संकेत करता है कि वह साधारण आत्माओं से 'परम' यानी श्रेष्ठतम है। वैदिक परम्परा के विविध दर्शनों में परमात्मा के स्वरूप को लेकर विविध मत-मतान्तर हैं, अतः उनमें एकमत्य नहीं है। फिर भी, उन सब में समानता के कुछ सूत्रों की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। वैदिक परम्परा के योग दर्शन में ईश्वर या परमात्मा को एक ऐसा विशिष्ट आत्मा (पुरुष-विशेष) माना गया है जो अविद्या, कर्म-बन्धन के शुभाशुभ फलों आदि से अस्पृष्ट होता है। साधक साधना में ईश्वर/परमात्मा को अपनी ध्यान-साधना का विषय या आलम्बन बनाता है। वैदिक परम्परा में यह भी मान्यता है कि परमेश्वर/परमात्मा लोकहित की दृष्टि से पृथ्वी पर अवतरित होता है, अत: वह लोकत्राता, जगन्नाथ, दीनबन्धु व भक्तवत्सल आदि विशेषणों के साथ पुकारा जाता है। जैन परम्परा की मान्यता के अनुसार, सांसारिक बन्धनों से ग्रस्त एवं रागादिलिप्त आत्माएं 'जीवात्मा' हैं जब कि वीतराग एवं सांसारिक बन्धनों से अस्पृष्ट आत्माएं परमात्मा हैं। परमात्मा के भी दो भेद हैं- (1) विकल (विदेह) परमात्मा, और (2) सकल (जीवन्मुक्त) परमात्मा। विकल (सिद्ध) परमात्मा अदृश्य होता है और इसलिए मित्रशत्रु, हितकारी-अहितकारी आदि रूपों से परे होता है। किन्तु सकल (जीवन्मुक्त, अर्हत्) परमात्मा देहधारी एवं दिव्य तेज व अचिन्त्य शक्ति से सम्पन्न होता हुआ

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