Book Title: Jain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 506
________________ ज्ञान-ज्योति का प्रचार-प्रसार करता हुआ लोककल्याणकारी, दीनबन्धु आदि के रूप में जन-जन का वन्दनीय बनता है। सभी मोक्षार्थियों के लिए उसका स्वरूप एक आदर्श होता है और उसकी शरण में गए अनेक प्राणी सज्ज्ञान प्राप्त कर, आत्म-कल्याण करने में सक्षम होते हैं। ___ उपर्युक्त विचार-बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में जैन व वैदिक- इन दोनों धर्मों की परम्परा में समानता के कुछ सूत्र प्रस्तुत उद्धरणों में मुखरित हुए हैं: (1) जोई झाएउ णिय-आदं। (नयचक्र-348) - योगी निज (परम) आत्मा का ध्यान करता है। (2) तत्थ परो झाइज्जइ। (मोक्षप्राभृत-4) - परम आत्मा (परमात्मा-परमेष्ठी) ध्यान करने योग्य है। (3) ध्यायथ आत्मानम्। (मुण्डक उपनिषद्- 2/216) - (परम, आत्मा का ध्यान करें। (4) सर्वेन्द्रिटः य, स्तिमितेनान्तरात्मना। यत्क्षणं पान, तत्तत्त्वं परमात्मनः॥ (समाधिशतक-30) -समस्त इन्द्रियों का निग्रह करके, स्थिर अन्तरात्मा द्वारा (ध्यान में) जो अनुभति में आता है, वह परमात्मा तत्त्व है।

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