Book Title: Jain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 494
________________ संसार संसार शब्द के दो अर्थ हैं- (1) जीव का विविध गतियों में संसरण, और (2) द्रव्यात्मक लोक । जीव की सांसारिक यात्रा का मूल या आधार है- उसकी कामनाएं व इन्द्रिय-विषय सेवन। संयम के मार्ग पर ज्योंही कोई जीव चल पड़ता है तो वह अपनी सांसारिक यात्रा की समाप्ति हेतु प्राथमिक प्रयास करता है। द्रव्यात्मक लोक का यथार्थ स्वरूप यह है कि वह अनादि है, अनन्त है, शाश्वत-अविनशी है और उसका कोई कर्ता-रचयिता या स्रष्टा नहीं है। वैदिक व जैन धर्म-परम्पराएं भी उक्त तथ्य पर अपनी सहमति व्यक्ति करती हैं। (संसरण) (1) एवं जं संसरणं णाणादेहेसु होदि जीवस्स। सो संसारो भण्णदि मिच्छाकसाएहिं जुत्तस्स। (द्वादशानुप्रेक्षा-33) - - मिथ्यात्व (अज्ञान) और कषाय (रागादि) से युक्त जीव का नाना शरीरों (क्रमशः) को ग्रहण करना व छोड़ना- यही संसार है। सोऽयं विपुलमध्वानं कालेन ध्रुवमधुवः। नरोऽवशः समभ्येति सर्वभूतनिषेवितम् ॥ (महाभारत-12/28/50) कीय साई 467

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