Book Title: Jain Dharm Prakash 1950 Pustak 066 Ank 12 Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha View full book textPage 4
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन से अपने मान तुं।। जब देह भी तेरी नहीं, फिर मानता अपनी क्यों ? तुं । मलमूत्र के उन द्वार में, आसक्त होता है क्यों ? तुं ॥१॥ देह से सम्बन्ध जीनका, वह सम्बन्ध नश्वर जान तुं। अय अविनाशी आतमा । कर निज की भी पहिचान तुं ॥२॥ माया कहां से कौन है ?, फिर जायगा कहां पे तुं। इसका कर विचार पहिले, फिर और करना कार्य तुं ॥३॥ है निधि तेरी वो क्या ?, और मानता क्या ? अपनी तुं । इसको समझ ले सबसे पहिले, प्रयत्न फिर कर अपना तुं ॥४॥ मानता है अपने मनसे, धन व दोलत अपनी तुं। अनुभव कर नित्य देखले, यह कीसके है और कीसका तुं ॥५॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, रत्न यह निधि, करना इस पर श्रद्धा तुं। . इनको ही अपनी मान कर, इनका ही करना विकास तुं॥६॥ शाश्वत निधि बस है यह तेरी, और है अविनाशी तुं। और तेरा है न कुछ, यह मनसे अपने मान तुं ॥७॥ राजमल भंडारी-आगर (मालवा) नमस्कार-महामंत्र नमस्कार मम नित्य हो, अरिहन्त भगवानों को । नमस्कार मम नित्य हो, प्रभु सिद्धभगवानों को ॥ नमस्कार मम नित्य हो, आचार्य भगवन्तों को। नमस्कार मम नित्य हो, उपाध्याय महन्तों को । नमस्कार मम नित्य हो, लोकमे सर्व सुसन्तों को। इन पांचों नमस्कारों से, सब पापोंका क्षय हो । मांगलिक सब कार्यों में, मेरा प्रथम मंगल हो ॥ ॐ ॥ राजमल भण्डारी-आगर (मालवा) ( २७४ ) .. .... For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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