Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon Author(s): Shweta Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 7
________________ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव की कारणता पर विचार जैन दार्शनिकों का अपना मौलिक योगदान है। इसका उल्लेख आगम-साहित्य एवं टीका साहित्य में विभिन्न स्थानों पर प्राप्त होता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल द्रव्य की कारणता का प्रतिपादन भी जैनागमों में सम्प्राप्त है। इन षड्द्रव्यों के अपने उपग्रह या उपकार हैं। वे ही उनके कार्य हैं, जो अन्य द्रव्यों के कार्यों में भी सहायक बनते हैं। विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान एवं अधिकरण कारकों की कारणता को प्रतिपादित कर अनेकान्त दृष्टि का परिचय दिया है। उपादान और निमित्त कारणों के रूप में जैन दार्शनिकों ने कारण-कार्य सिद्धान्त की व्याख्या की है। आगम वाङमय में उपादान और निमित्त शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है, किन्तु उत्तरवर्ती दार्शनिकों ने इन्हें जैन दर्शन में यथोचित स्थान दिया है। कारण-कार्य की व्याख्या में 'पंच समवाय' सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह जैन दार्शनिकों की अनेकान्त दृष्टि का परिणाम है। पंच समवाय में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ इन पांच कारणों का समन्वय स्वीकार किया गया है। आगम वाङ्मय में पंच समवाय का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। सर्वप्रथम सिद्धसेन सूरि (दिवाकर) ने पांचवीं शती ईस्वी में सन्मतितर्कप्रकरण में इन कारणों का निम्नानुसार कथन किया है कालो सहाव णियई पुवकयं पुरिसे कारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेव उ, समासओ होंति सम्मत्तं।। सिद्धसेनसूरि ने अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और नयवाद का निरूपण करते हुए नयदृष्टि से काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष/पुरुषार्थ की कारणता अंगीकार की है। वे इनमें से मात्र एक की कारणता को ही अंगीकार करने को मिथ्यात्व एवं सबकी सामुदायिक कारणता को सम्यक्त्व मानते हैं। काल आदि पांचों की सामूहिक या सापेक्ष कारणता का प्रतिपादन ही 'पंच समवाय' के सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। ____ 'पंच समवाय' शब्द आधुनिक युग में अत्यन्त प्रसिद्ध होकर भी अधिक प्राचीन नहीं है। सर्वप्रथम इसका उल्लेख कब हुआ यह तो निश्चित नहीं कहा जा सकता, किन्तु १९वीं शती में तिलोकऋषि द्वारा इस शब्द का अपनी काव्यरचना में भूरिश: प्रयोग किया गया है। इससे यह ज्ञात होता है कि तिलोकऋषि के समय 'पंच समवाय' शब्द प्रसिद्ध हो चुका था, किन्तु उसके पूर्व पंच समवाय का प्रयोग किसने किया, यह उपलब्ध एवं अधीत स्रोतों से ज्ञात नहीं हो सका है। सिद्धसेन सूरि प्रयुक्त 'समासओ' शब्द ही आगे चलकर 'कलाप', 'समुदाय' 'समुदित' से 'समवाय' के रूप में विकसित हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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