Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan Author(s): Nagrajmuni Publisher: Atmaram and Sons View full book textPage 8
________________ सम्पादकीय आज की भौतिक चकाचौंध में पली पीढ़ी दर्शन के प्रति उतनी श्रद्धाशील नहीं है जितनी कि विज्ञान के प्रति । यद्यपि दर्शन और विज्ञान का अन्तिम साद्य एक है और वे दोनों ही सत्य तक पहुँचने के उपक्रम हैं, फिर भी अन्तर स्पष्ट है। दर्शन जहाँ मनुष्य की आन्तरिक ज्ञान-शक्ति के आधार पर तथ्यों तक पहुँचने का प्रयास करता है, वहाँ विज्ञान प्रयोग-शक्ति के आधार पर । प्रयोग-प्राप्त सत्य की तरह चिन्तन-प्राप्त सत्य स्थूल आकार में सामने नहीं आता, अत: साधारणतया जनता की श्रद्धा को अपनी ओर आकृष्ट करना विज्ञान के लिए जितना सहज है, दर्शन के लिए उतना नहीं। इतना होने पर भी दोनों कितने नजदीक हैं-यह देखकर चकित होना पड़ता है। 'जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान' दर्शन और विज्ञान की समीक्षात्मक सामग्री प्रस्तुत करती है । जैन दर्शन में परमाणु, भू-भ्रमण, ईथर आदि के सम्बन्ध में क्या उल्लेख हैं और आधुनिक विज्ञान के साथ उनका कहाँ कितना विचार-एक्य व विचार-वैभिन्य है, यह इसमें स्पष्ट रूप से मिलेगा । व्यवस्थित व विश्वस्त अध्ययन के साथ पुस्तक जिस रोचक शैली में लिखी गई है वह पाठक को दुरूह नहीं लगेगी अपितु प्रारम्भ किया गया निबन्ध वह समग्र पढ़ना चाहेगा। यही कारण है कि हिन्दी के प्रमुख 'दैनिक नवभारत टाइम्स' ने पुस्तक के काफी भाग को धारावाहिक प्रकाशित किया। लेखक मुनिश्री नगराज जी जैन श्वेताम्बर तेरापंथ परम्परा के सन्त है। दर्शन और साहित्य उनके जीवन का विषय है। अणुव्रत-आन्दोलन प्रणेता आचार्य श्री तुलसी, जिन्होंने कि अपने साधु-संघ (तेरापंथ) को नया मोड़ दिया है, आपके प्रेरणा-स्रोत हैं। यही कारण है एक जैन मुमुक्षु ने विज्ञान का इतना गहन अध्ययन किया है। केवल अध्ययन ही नहीं अपितु अपने दार्शनिक तथ्यों को आज के वैज्ञानिक युग में तत्संगत सिद्ध किया है। मुनिश्री के इस प्रयास से नई पीढ़ी को एक आलोक मिलेगा, मार्ग-च्युत होती विचारधारा को सोचने का मौका मिलेगा और आत्म तथा अध्यात्म से उठती निष्ठा को एक सहारा मिलेगा। ___ में श्री रामलाल पुरी, संचालक, आत्माराम एण्ड संस को भी धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन में अपनी सुरुचि अभिव्यक्त की। पुस्तक के सम्पादन का मुझे अवसर मिला, इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ। -सोहनलाल बाफरणा Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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