Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 10
________________ और दार्शनिक चिन्तन का विकास जिस रीति से हुआ है उसमें आत्ममुग्ध साम्प्रदायिक निष्ठा बलवती दिखाई पड़ती है। इसका एक बहुत बड़ा कारण जैनविद्या के प्रवर्तक केन्द्रों का अन्तरानुशासिक चरित्र का नहीं होना है। प्रो. सागरमल जैन के अकादमिक व्यक्तित्व का विकास विश्वविद्यालयीय वातावरण में हुआ है। अतः उनके लेखन में साम्प्रदायिक आत्ममुग्धता के बदले अन्तरानुशासिक आलोचनात्मकता दिखाई पड़ती है। उनके लेखन की इसी विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए इस संग्रह ग्रन्थ के माध्यम से उनके द्वारा प्रस्तुत जैन दर्शन के विविध पक्षों को तुलनात्मक एवं आलोचनात्मक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इस संग्रह को तैयार करने में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे मैं अपना कह सकूँ। यदि अपना जैसा कुछ है भी तो बस इतना कि मैंने इन आलेखों के अकादमिक मूल्य को पहचाना है और स्मृतियों गर्त से इन्हें निकालकर पुस्तकाकार रूप में मात्र संयोजित कर दिया है। मेरे इस प्रयास से यदि प्रो. सागरमल जैन की ज्ञान साधना को दीर्घायुष्य प्राप्त होता है और उससे जिज्ञासु विद्यार्थी एवं शोधार्थी लाभान्वित होते हैं तो यही मेरे प्रयास की सार्थकता होगी। इस ग्रन्थ को तैयार करने में अपने दो शोधार्थियों डॉ. ऋषभ कुमार जैन एवं सचिन्द्र कुमार जैन को उनके सहयोग के लिए साधुवाद देता हूँ। इसके प्रकाशन की जिम्मेवारी प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ने अपने ऊपर लेकर बड़ा उपकार किया है। यद्यपि यह कार्य उसकी स्थापना के उद्देश्यों के सर्वथा अनुरूप ही है। इस अहेतुक उपकार के लिए मैं प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर और विशेष रूप से पद्मभूषण श्री डी.आर. मेहता जी के प्रति हृदय से आभार और कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। 15 मार्च, 2016, सागर प्रो. अम्बिकादत्त शर्मा

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