Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 8
________________ पुरोवाक् जैन वाङ्मय गुण और परिमाण की दृष्टि से विपुलकाय है। इस विपुलकाय शास्त्र परम्परा को अपने अध्यवसाय से स्वायत्त करने वाले . प्रो. सागरमल जैन अपने ढंग के अकेले व्यक्ति हैं । उनकी अद्यावधि सारस्वत् साधना पर दृष्टिपात करने से सहज ही विदित होता है कि उनके जीवन में एक अज्ञात प्रेरणा सक्रिय रूप से उनका निर्माण करती रही है। इस दृष्टि से उनके जीवन को प्रायोजित जीवन कहा जा सकता है । जैनागमीय चिन्तन परम्परा के भाष्य में समर्पित उनका जीवन ऊपर से देखने पर कर्मयोगी की तरह दिखता है, परन्तु अन्दर से देखने पर वे ज्ञानयोग की साधना में निरत दिखाई पड़ते हैं । उनकी आत्मप्रतिमा एक ज्ञानयोगी की है । आजीवन उन्होंने इसी आत्मप्रतिमा को न केवल पल्लवित किया है, बल्कि उसका संस्थानीकरण भी किया है । उनके संपूर्ण जीवन को आत्मक्रियान्वयन की साधना से अभिहित किया जाना सर्वाधिक समीचीन प्रतीत होता है। जैन धर्म और दर्शन को आधुनिक युग की पदावली में वाक् - विग्रहित करना उनके आत्मक्रियान्वयन का आलम्बन रहा है। शाजापुर में बालकृष्ण 'नवीन' महाविद्यालय की स्थापना में साधकतम सहयोग, काशी में पार्श्वनाथ विद्याश्रम का एक अग्रणी जैनविद्या शोधसंस्थान के रूप में पुनरोद्धार और फिर अपने ही गृहनगर शाजापुर में प्राच्य विद्यापीठ की स्थापना उनकी आत्मविस्तारक कर्मठता को ही प्रमाणित करते है । अपने जीवन की हर एक परिस्थिति और भूमिका में उन्होंने जैनागमीय ज्ञान-साधना के विस्तरण में ही अपना आत्मविस्तार देखा है । उनके बृहत्तर वाङ्मयी व्यक्तित्व को ज्ञान की निजी साधना की अनुमत सीमा में समझा ही नहीं जा सकता है । इसके लिए यह देखना जरूरी है कि उनके संपर्क में आया हुआ प्रत्येक विद्यार्थी और शोधार्थी अपने-अपने तरीके से सागरमल को ही किस तरह व्यंजित करता है । इतना ही नहीं, उनके द्वारा स्थापित संस्थाएँ,

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