Book Title: Jain Bhajan Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 34
________________ श्री पारस इक्तिसा पारस प्रभु के चरणों मैं, निशदिन करू प्रणाम | मन वंचित पुरो प्रभु, श्याम वर्ण सुखधाम || १ || चरण-शरण मैं भक्त तुम्हारा, शरणागत हु मैं दुखियारा | भव- सागर से हमें उबारो, अपने यश की बात विचारो || २ || तुम जन जन के बने सहारे, हम तो सारे जग से हारे| हारा तुमको हार चढ़ावे, तो जग मैं कैसे यश पावे || 3 || जीवन के हर बंधन खोलो, मत मेरे पापो को तोलो | पूजा की कुछ रीत न जाने, आये मन की पीर सुनाने || ४ || तुमने अनगनित पापी तारे, मैं भी आया द्वार तुम्हारे | मुझको केवल आस तुम्हारी, अपना लो है भाव- भयहारी || ५ || सकल धरा को स्वर्ग बनाया, व्यंतर को संकित दरसाया | लेकर नर-अवतार धरा पर, पाप मिटाया ज्ञान जगाकर || ६ || पोष वादी दशमी तिथि पाकर, नभ से उतरी किरण धरा पर | धर्मपुरी काशी मैं जन्मे, शंकर रमे, जहा कण कण मैं || ७ || बडभागी वह वामा माता, जिसने जन्मा तुमसा जाता | अश्वसेन के पूत कहाये, फिर भी जगतपिता पद पाये || ८ || कमठ तपस्वी अति अभिमानी, प्रभु तुम सकल तत्व के ज्ञानी | आग जली संग जली तपस्या, धर्म बन गया स्वयं समस्या || ९ || काष्ट चिराय, नाग दिखाया, आंसू से अभिषेक कराया | महामंत्र नवकार सुनाकर, स्वर्ग दिलाया पुण्य जगाकर || धन्य धन्य वे प्राणी जलचर, मंत्र सुनाते जिन्हें जिनेश्वर | महामंत्र की महिमा भारी, पारस प्रभु वर्तो जयकारी || राज महल के राग- रंग मैं, रहकर भी थे नहीं संग मैं | नेमिनाथ की करुना जानी, जग की समझी पीर पुराणी || 34

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