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विषय-प्रवेश
जैन आगमों में दर्शन की ऐसी बहुमूल्य अवधारणाएं उपलब्ध हैं जिनका अपना वैशिष्ट्य है। उन अवधारणाओं का केवल मध्ययुगीन जैन तार्किक साहित्य के स्वाध्याय से समीचीन मूल्यांकन नहीं हो सकता।
यह सच है कि आगम में विषय प्रतिपादन की क्रमबद्धता परिलक्षित नहीं है। वहां सत्य के प्रयोगों से प्राप्त परिणामों का अपनी ही शैली में गुम्फन है जबकि तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थ आगमों में प्राप्त विषयों को क्रमबद्धता प्रदान करने पर मुख्य रूप से ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं किन्तु इस व्यवस्था क्रम में आगम की अनेक अवधारणाओं का समावेश उन ग्रन्थों में नहीं हो सका। यह स्वाभाविक भी था। आगम सत्य अन्वेषण में अनुभव को प्रधानता दे रहे हैं वही दार्शनिकग्रन्थों में अन्वेषित सत्य को तर्क के द्वारा स्थापित करने का प्रयत्न हो रहा है। अवश्य ही तत्त्वार्थसूत्र, समयसार, सन्मतितर्कप्रकरण, तत्त्वार्थ-भाष्यानुसारिणी, विशेषावश्यकभाष्य, तत्त्वार्थराजवार्तिक जैसे दार्शनिक ग्रन्थ आगम के मूल से जुड़े रहे हैं
और इन ग्रन्थों के माध्यम से जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण जानकारियां हमें हस्तगत होती हैं। इन ग्रन्थों ने आगम में प्राप्त सत्यों/तथ्यों को क्रमबद्ध रूप में रखकर जैन दर्शन को एक नया आयाम प्रदान किया है। तथापि जैसे शांकरवेदान्त पढ़ लेने पर भी उपनिषदों का महत्त्व बना ही रहता है उसी प्रकार इन ग्रन्थों को पढ़ लेने पर भी आगमों का दार्शनिक वैशिष्ट्य गतार्थ नहीं हो जाता।
जैनदर्शन के मूल स्रोत आगम हैं। परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर ने अपने प्रलम्ब साधना के अभ्यास से जिन सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार किया उनका प्रतिपादन आगमों में है। उदाहरणत:* पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीवन के अस्तित्व को स्वीकार करते
हुए जीवों का षड्जीवनिकाय के रूप में वर्गीकरण। * धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय, लोक-अलोकवाद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि
के पृथक्-पृथक्परमाणुओं के स्थान पर एकरस, एक गंध, एकवर्णएवं द्विस्पर्शयुक्त एक ही प्रकार के परमाणुओं से सब प्रकार के भौतिक स्कन्धों के निर्माण की स्वीकृति।
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