Book Title: Jain Agam me Darshan Author(s): Mangalpragyashreeji Samni Publisher: Jain Vishva BharatiPage 18
________________ कर्म का कर्ता (189); सांख्य : प्रकृति कर्म की कर्ता ( 1 8 9-190); नियति : कर्म की कर्ता (190); कर्म चैतन्यकृत (1 9 0-191): निश्चय एवं व्यवहार नय से कर्म का कर्ता (191); कर्मोपचय प्रयत्नकृत (191 - 19 2); दु:ख का स्पर्श किसको? (192) कर्म बंध का हेतु (192); कर्मबंध का कारण : प्रमाद एवं योग (1 92 - 193); प्रमाद के प्रकार (1 9 3); योग का अर्थ (1 9 3 - 1 9 4); कर्मबन्ध का कारण : राग और द्वेष (1 9 4); प्रज्ञापना की अवधारणा (194-95); आगमोत्तर साहित्य : कर्मबंध के हेतु (195); कर्मबंध के आभ्यन्तर एवं बाह्य हेतु (195 - 196); स्वप्न एवं जागरण में कर्म का बंध (196); कर्मबंध का हेतु अविरति (196 - 197): बन्ध की प्रक्रिया (197) कर्मफलभोग (1 97-198); जीव में कर्मफल भोग की शक्ति (198); कर्मफलदान शक्ति का निर्धारण (198); कालोदायी अनगार की जिज्ञासा (199); कर्मफलदान के नियम (199); कर्मफल में असंविभाग (199-200); सुख का संविभाग भी अमान्य (200 - 201) आश्रव : कर्म आकर्षण का हेतु (201); बंध : आश्रव एवं निर्जरा का मध्यवर्ती (201); बंध के प्रकार (201-202); मोदक का उदाहरण (202); प्रकृति बंध के भेद ( 2 0 2); अन्तराय कर्म के दो भेद ( 20 2 - 203); कर्म की अवस्था (2 0 3 - 2 0 4); कर्म का परिवर्तन (204); असंवृत्त-संवृत्त अनगार का उदाहरण (2 0 4-205); कर्मवाद का सामान्य नियम (205); कर्मवाद और पुरुषार्थ ( 2 0 5 - 2 0 6) उदीरणा (2 0 6 - 207); महावीर-गौतम का संवाद (207) नोकर्म की निर्जरा (207- 2 0 8); चलित-अचलित कर्म (208); स्वप्रदेशावगाही पुद्गलों का ग्रहण (208 - 209); कर्मबंध की समानता या विषमता (2 09-210); कर्मबंध : अध्यवसाय की तीव्रता-मंदता (210-21 1); कांक्षा मोहनीय विमर्श (2 11- 2 1 2); कांक्षा मोहनीय : स्वरूप भिन्नता (2 1 2 ); कर्म का वेदन : व्यक्त एवं अव्यक्त ( 2 1 2 - 2 1 3); मोहनीय कर्म के बावन नाम (213); मोह के तीन प्रकार (2 1 4-2 1 5); आयुष्य का बंध कब और कैसे ? ( 2 1 5); आयुष्यकर्म के सहयायी बंध ( 2 1 5 - 2 1 6); आयुष्यकर्म एवं आकर्ष की व्यवस्था ( 2 1 6); एक साथ कितने कर्मों का बंध (216); कर्मबंध एवं गुणस्थान (21 6-217); आठ कर्मों के बंध के निमित्त ( 2 17 - 2 1 8); कर्म का अबाधाकाल (2 1 8 - 219); कर्म उदय के निमित्त (219); कर्म पर अंकुश ( 2 19-220) कर्म उदय के निमित्तों की विविधता (220) ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रिया ( 2 2 0 - 221); ऐर्यापथिकी क्रिया का स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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