Book Title: Jain Agam me Darshan Author(s): Mangalpragyashreeji Samni Publisher: Jain Vishva BharatiPage 16
________________ शब्द विमर्श (98-99); अस्तिकाय का स्वरूप (100); भगवती में अस्तिकाय की अवधारणा (100-101); अस्तिकाय का लोक व्यापित्व (101-02) अस्तिकाय की विविधता (102-10 3); धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय (103); धर्म-अधर्म की उपयोगिता (104): चार अस्तिकाय के अष्ट मध्यप्रदेश (105-106); जीवपुद्गल की गति लोक में ही क्यों ? (106 - 108); धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय की तुलना (10 8 -109); पर्यायवाची अभिवचन (109 - 110): धर्मास्तिकाय आदि के प्रदेशों का स्वभाव बंध (110); आकाशास्तिकाय (111) पुद्गलास्तिकाय (111 - 1 1 2 ); पुद्गल की द्विरूपता (1 1 2 - 1 1 3 ); परमाणु की सप्रदेशता-अप्रदेशता (1 1 4 - 115); स्कन्ध की सप्रदेशता-अप्रदेशता (115); परमाणु-पुद्गल की शाश्वतता-अशाश्वतता (115); पुद्गल के परिवर्तन का नियम (115-116); पुद्गल के गुणधर्म में परिवर्तन के नियम (116) परमाणु का विखण्डन (116); परमाणुः सूक्ष्म एवं व्यावहारिक (117); पदार्थ की द्विरूपताः भारमुक्त या भारयुक्त (117-118); पुद्गल का परिणमन (118-120); पुद्गल की ग्राह्यता-अग्राह्यता (120); पुद्गल परिणति के प्रकार (121-122); प्रयोग परिणत पुद्गल (122); जीवकृत सृष्टि (1 2 3 - 1 2 4); प्रयोग एवं विस्रसा बंध (124); बंधन प्रत्ययिक बंध (1 2 5- 1 2 7); भाजन-प्रत्ययिक बंध (127); परिणाम प्रत्ययिक बंध (128); परमाणु की गति ( 1 2 8 ) मन एवं भाषा पौदगलिक (129); शब्द श्रवण की प्रक्रिया (129-131); जीव और पुद्गल की अनुश्रेणी गति (131-132); परिभोग्य-परिभोक्ता (1 3 3 -134); तमस्काय एवं कृष्णराजी (134); तमस्काय का प्रारम्भ एवं अन्त बिन्दु (134); कृष्णराजी की संख्या एवं स्थिति (1 3 4-1 3 5) कालद्रव्य (1 3 5 - 1 3 6); काल परमाणु (137); काल का ऊर्ध्वप्रचय (137 - 138); काल के विभाग (138-139); निश्चय एवं व्यवहार काल (139-140) चतुर्थ अध्याय : आत्ममीमांसा 141-178 आत्मा का स्वरूप (141-142); आत्मा के प्रकार (142); शुद्धात्मा (142 - 1 4 3); भाषा का प्रयोग क्षेत्र (143); आत्मविचार : आचारांग एवं उपनिषद् (144); आत्म व्याख्या में नेतिवाद (144-145); आत्मा की कालिकता (145); आत्मा एक है (146); आचारांग में आत्माद्वैत (146-147); आत्मविमर्श : आचारांग और समयसार (147); आत्म विश्लेषण : व्यवहार एवं निश्चयनय (14 8-149); समयसार में आचारांग के नेतिवाद का विस्तार (149): आत्मा : बंध एवं मोक्ष (149-50) (viii) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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