Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 201
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-663 जैन- आचार मीमांसा -195. उपभोग की प्रत्येक वस्तु की संख्या, मात्रा आदि निर्धारित करनी होती है, जैसे- वह कौन सा मंजन करेगा, किस प्रकार के चावल, दाल, सब्जी, फल-मिष्ठान्न आदि का उपभोंग करेगा, उनकी मात्रा क्या होगी, उसके वस्त्र, जूते, शय्या आदि किस प्रकार के और कितने होंगे ? वस्तुतः इस व्रत के माध्यम से उसकी भोग-वृत्ति को संयमित कर उसके जीवन को सात्विक और सादा बनाने का प्रयास किया गया है, जिसकी उपयोगिता को कोई भी विचारशील व्यक्ति अस्वीकार नही करेगा। आज जब मनुष्य उद्दाम भोगवासना में आकण्ठ डूबता जा रहा हैं, इस व्रत का महत्व स्पष्ट है। जैन आचार्यों ने उपभोग-परिमाणव्रत के माध्यम से यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया हैं कि गृहस्थ उपासक को किन साधनों के द्वारा अपनी आजीविका का उपार्जन करना चाहिए और किन साधनों से आजीविका का उपार्जन नहीं करना चाहिए। गृहस्थ उपासक के लिए निम्नलिखित पन्द्रह प्रकार के व्यवसायों से आजीविका अर्जित करना निषिद्ध माना गया है - 1. अङ्गारकर्म-जैन आचार्यों ने इसके अन्तर्गत व्यक्ति को अग्नि प्रज्ज्वलित करके किये जाने वाले सभी व्यवसायों को निषिद्ध बताया हैं, जैसे- कुम्भकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि के व्यवसाय / किन्तु मेरी दृष्टि में इसका तात्पर्य जंगल में आग लगाकर कृषि योग्य भूमि तैयार करना है। 2. वनकर्म-जंगल कटवाने का व्यवसाय / 3. शकटकर्म-बैलगाड़ी, रथ आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय / 4. भाटककर्म-बैल, अश्व आदि पशुओं को किराये पर चलने का व्यवसाय / 5. स्फोटिकर्म-खान खोदने का व्यवसाय / 6. दन्तवाणिज्यकर्म-हाथी-दाँत आदि हड्डी का व्यवसाय / उपलक्षण से चमड़े तथा सींग आदि का व्यवसाय भी इसमें सम्मिलित हैं। 7. लाक्षा-वाणिज्यकर्म-लाख का व्यवसाय / 8. रस-वाणिज्यकर्म-मद्य, मांस, मधु आदि का व्यवसाय। 9. विष-वाणिज्यकर्म-विभिन्न प्रकार के विषों का व्यवसाय / 10. केश-वाणिज्यकर्म-बालों एवं रोमयुक्त चमड़े का व्यवसाय। 11. यन्त्रपीडनकर्म-यन्त्र, साँचे, कोल्हू आदि का व्यवसाय / उपलक्षण से अस्त्रशस्त्रों का व्यापार भी इसी में सम्मिलित हैं। 12. नीर्लाञ्छनकर्म-बैल अदि पशुओं को नपुसंक बनाने का व्यवसाय।।

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