Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 258
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-720 जैन- आचार मीमांसा-252 मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें। सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से मेरा वैर नहीं है। 68 महावीर का श्रमण-साधकों के लिए यह आदेश था कि साधुओं! यदि तुम्हारे द्वारा किसी का अपराध हो गया है, तो सबसे पहले क्षमा माँगो। जब तक क्षमायाचना न कर लो, भोजन मत करो, स्वाध्याय मत करो, शौचादि कर्म भी मत करो, यहाँ तक कि अपने मुँह का थूक भी गले से नीचे मत उतारो। अपने प्रधान शिष्य गौतम को लाए हुए आहार को रखवाकर पहले आनन्द श्रावक से क्षमा याचना के लिए भेजना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि महावीर की दृष्टि में क्षमा-धर्म का कितना अधिक महत्व था। 69 जैन परम्परा के अनुसार, प्रत्येक साधक को प्रातःकाल एवं सायंकाल, पक्षान्त में, चातुर्मास के अन्त में और संवत्सरी-पर्व पर सभी प्राणियों से क्षमायाचना करनी होती है। समाधि-मरण (संलेखना) ___जैन-परम्परा के सामान्य आचार-नियमों में संलेखना या संथारा (स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण) एक महत्वपूर्ण तथ्य है / जैन गृहस्थ-उपासकों एवं श्रमण-साधकों, दोनों के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्यु-वरण का विधान जैन-आगमों में उपलब्ध है। जैनागम-साहित्य ऐसे साधकों की जीवन-गाथाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने स्वच्छया मरण का व्रत अंगीकार किया था। अन्तकृत्दशांग एवं अनुत्तरोपपातिक-सूत्रों में उन श्रमण-साधकों का और उपासकदशांगसूत्र में आनन्द आदि उन गृहस्थ-साधकों का जीवन-दर्शन वर्णित है, जिन्होंने जीवन की सांध्य–वेला में स्वेच्छा-मरण का व्रत स्वीकारा था। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार, मृत्यु के दो रूप हैं - 1. स्वेच्छा-मरण या निर्भयतापूर्वक मृत्युवरण और 2. अनिच्छापूर्वक या भयपूर्वक मृत्यु से ग्रसित होना / 87 स्वेच्छा-मरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है, जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। पहले को पण्डितमरण या समाधिमरण भी कहा गया है और दूसरे को बाल (अज्ञानी) मरण या असमाधिमरण कहा गया है। एक ज्ञानीजन की मौत है और दूसरी अज्ञानी की, अज्ञानी विषयासक्त होता है और इसलिए वह बार-बार मरता है, जबकि यथार्थ ज्ञानी अनासक्त होता है, इसलिए वह एक ही बार मरता है। 188 जो मृत्यु से भय खाता है, उससे बचने के लिए भागा-भागा फिरता है, मृत्यु भी उसका बराबर पीछा करती रहती है, लेकिन जो निर्भय होकर मृत्यु का स्वागत करता है और उसका आलिंगन करता है, मृत्यु भी उसका पीछा नहीं करती। जो मृत्यु से भय खाता है, वही मृत्यु का शिकार होता है, लेकिन जो मृत्यु से निर्भय हो जाता है, वह अमरता की दिशा में आगे बढ़ जाता है। साधकों के प्रति महावीर का सन्देश यही था कि मृत्यु के उपस्थित होने पर शरीरादि से अनासक्त होकर उसका आलिंगन करो। 189 महावीर के दर्शन में अनासक्त जीवन-शैली की यही महत्वपूर्ण कसौटी है। जो साधक मृत्यु से भागता है, वह सच्चे अर्थ में अनासक्त-जीवन जीने की कला से अनभिज्ञ है। जिसे अनासक्त-मृत्यु की कला नहीं आती, उसे अनासक्त-जीवन की कला भी नहीं आ सकती। इसी अनासक्त-मृत्यु

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