Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 275
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-737 जैन- आचार मीमांसा-269 पुरुषार्थचतुष्टय एवं समाज भारतीय-दर्शन मानव-जीवन के लिए अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष-इन पुरुषार्थों को स्वीकार करता है। यदि हम सामाजिक-जीवन के सन्दर्भ में इन पर विचार करते हैं, तो इनमें से अर्थ, काम और धर्म का सामाजिक-जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। सामाजिकजीवन में ही इन तीनों पुरुषार्थों की उपलब्धि सम्भव है। अर्थोपार्जन और काम का सेवन तो सामाजिक-जीवन से जुड़ा हुआ ही होता है, किन्तु भारतीय-चिन्तन में धर्म भी सामाजिक-व्यवस्था और शान्ति के लिए ही है, क्योंकि धर्म को ‘धर्मों धारयते प्रजाः' के रूप में परिभाषित कर उसका सम्बन्ध भी हमारे सामाजिक-जीवन से जोड़ा गया है। वह लोक-मर्यादा और लोक-व्यवस्था का ही सूचक है। अतः, पुरुषार्थचतुष्टय में केवल मोक्ष ही एक ऐसा पुरुषार्थ है, जिसकी सामाजिक-सार्थकता विचारणीय है। प्रश्न यह है कि क्या मोक्ष की धारणा सामाजिक-दृष्टि से उपादेय हो सकती है ? जहाँ तक मोक्ष की मरणोत्तर अवस्था या तत्त्व-मीमांसीय-धारणा का प्रश्न है, उस सम्बन्ध में न तो भारतीय-दर्शनों में ही एक रूपता है और न उसकी कोई सामाजिकसार्थकता ही खोजी जा सकती है, किन्तु इसी आधार पर मोक्ष को अनुपादेय मान लेना उचित नहीं है। लगभग सभी भारतीय-दार्शनिक इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि मोक्ष का सम्बन्ध मुख्यतः मनुष्य की मनोवृत्ति से है / बन्धन और मुक्ति- दोनों ही मनुष्य के मनोवेगों से सम्बन्धित हैं / राग, द्वेष, आसक्ति, तृष्णा, ममत्व, अहम् आदि की मनोवृत्तियाँ ही बन्धन हैं और इनसे मुक्त होना ही मुक्ति है। मुक्ति की व्याख्या करते हुए जैन-दार्शनिकों ने कहा था कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था ही मुक्ति है। आचार्य शंकर कहते हैं - . .. . 'वासनाप्रक्षयो मोक्षः'17 .. वस्तुतः, मोह और क्षोभ हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और इसलिए मुक्ति का सम्बन्ध भी हमारे जीवन से ही है। मेरी दृष्टि में मोक्ष मानसिक-तनावों से मुक्ति है। यदि हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक-सार्थकता के सम्बन्ध से विचार करना चाहते हैं, तो हमें इन्हीं मनोवृत्तियों एवं मानसिक-विक्षोभों के सन्दर्भ में उस पर विचार करना होगा। सम्भवतः, इस सम्बन्ध में कोई भी दो मत नहीं रखेगा कि राग, द्वेष, तृष्णा, आसक्ति, ममत्व, ईर्ष्या, वैमस्य आदि की मनोवृत्तियाँ हमारे सामाजिक जीवन के लिए अधिक बाधक हैं। यदि इन मनोवृत्तियों से मुक्त होना ही मुक्ति का हार्द है, तो मुक्ति का सम्बन्ध

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