Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 283
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-745 जैन- आचार मीमांसा-277 प्रतिष्ठा की रक्षा, यश-अर्जन की भावना या भावी लाभ की प्राप्ति के हेतु ही होते हैं / ऐसा परार्थ स्वार्थ ही होता है। सच्चा आत्महित और सच्चा लोकहित राग-द्वेष से रहित अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित होता है, लेकिन उस अवस्था में न तो 'स्व' रहता है न 'पर'; क्योंकि जहाँ राग है वहीं 'स्व' है और जहाँ 'स्व' है वहीं पर' है। राग के अभाव में स्व और पर का विभेद ही समाप्त हो जाता है। ऐसीराग-विहीन भूमिका से किया जाने वाला आत्महित भी लोकहित होता है और लोकहित आत्महित होता है। दोनों में कोई संघर्ष नहीं, कोई द्वैत नहीं है। उस दशा में तो सर्वत्र आत्मदृष्टि होती है, जिसमें न कोई अपना, न कोई पराया। स्वार्थ-परार्थ की समस्या यहाँ रहती ही नहीं। जैन-विचारणा के अनुसार, स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी अवस्थाओं में संघर्ष रहे, यह आवश्यक नहीं। व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक-जीवन से आध्यात्मिक-जीवन की ओर ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे स्वार्थ-परार्थ का संघर्ष भी समाप्त होता जाता है। जैन-विचारकों ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने हैं - . 1. द्रव्य-लोकहित, 2. भाव-लोकहित और 3. पारमार्थिक-लोकहित। 1. द्रव्य-लोकहित- यह लोकहित का भौतिक-स्तर है। भौतिक-उपादानों, जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक-सेवा के द्वारा लोकहित करना लोकहित का भौतिक-स्तर है। यहाँ पर लोकहित के साधन भौतिक होते हैं। द्रव्य-लोकहित एकान्त रूप से आचरणीय नहीं कहा जा सकता। यह अपवादात्मक एवं सापेक्ष-नैतिकता का क्षेत्र है। भौतिकस्तर पर स्वहित की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। यहाँ तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय-साधना ही अपेक्षित है। पाश्चात्य नैतिक-विचारणा के परिष्कृत स्वार्थवाद, बौद्धिकपरार्थवाद और सामान्य शुभतावाद का विचारक्षेत्र लोकहित का भौतिक-स्वरूप ही है। 2. भाव-लोकहित - लोकहित का यह स्तर भौतिक-स्तर से ऊपर का है। यहाँ लोकहित के साधन ज्ञानात्मक या चैत्तसिक होते हैं / इस स्तर पर परार्थ और स्वार्थ-संघर्ष की सम्भावना अल्पतम होती है। 3. पारमार्थिक-लोकहित - यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है। यहाँ आत्महित और पर-हित में कोई संघर्ष या द्वैत नहीं रहता। यहां पर लोकहित का रूप होता है-यथार्थ जीवनदृष्टि के सम्बन्ध में मार्गदर्शन करना। बौद्धदर्शन की लोकहितकारिणी दृष्टि बौद्ध धर्म में लोक-मंगल की भावना का स्रोत प्रारम्भ से ही प्रवाहित रहा है। भगवान् बुद्ध की धर्मदेशना भी जैन तीर्थंकरों की धर्म-देशना के समान लोकमंगल के लिए ही प्रस्फुटित हुई थी। इतिवृत्तक में बुद्ध कहते हैं, हे भिक्षुओं ! दो संकल्प तथागत भगवान् सम्यक् सम्बुद्धं को

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