Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 285
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-747 जैन- आचार मीमांसा-279 आकाश (विश्वमण्डल) में बसे प्राणियों के सुख का कारण होती हैं , उसी प्रकार मैं आकाश के नीचे रहने वाले सभी प्राणियों का उपजीव्य बनकर रहना चाहता हूँ, जब तक कि सभी प्राणी मुक्ति प्राप्त न कर लें। ___साधना के साथ सेवा की भावना का कितना सुन्दर समन्वय है। लोकसेवा, लोककल्याण-कामना के इस महान् आदर्श को देखकर हमें बरबस ही श्री भरतसिंहजी उपाध्याय के स्वर में कहना पड़ता है, कितनी उदात्त भावना है। विश्व-चेतना के साथ अपने को आत्मसात् करने की कितनी विह्वलता है। परार्थ में आत्मार्थ को मिला देने का कितना अपार्थिव उद्योग है / आचार्य शांन्तिदेव भी केवल परोपकार या लोककल्याण का सन्देश नहीं देते, वरन् उस लोक-कल्याण के सम्पादन में भी पूर्ण निष्काम-भाव पर भी बल देते हैं। निष्काम-भाव से लोककल्याण कैसे किया जाए, इसके लिए शान्तिदेव ने जो विचार प्रस्तुत किए हैं, वे उनके मौलिक चिन्तन का परिणाम हैं। गीता के अनुसार, व्यक्ति ईश्वरीय-प्रेरणा को मानकर निष्कामभाव से कर्म करता रहे, अथवा स्वयं को और सभी साथी प्राणियों को उसी पर ब्रह्म का ही अंश मानकर सभी में आत्मभाव जाग्रत कर बिना आकांक्षा के कर्म करता रहे।

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