Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 264
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-726 जैन- आचार मीमांसा -258 अपनी इस एकात्मता की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता है। सामाजिकजीवन के विकास का आधार एकात्मता की अनुभूति है और जब एकात्मता की दृष्टि का विकास हो जाता है, तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वतः समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार, जहाँ एक ओर औपनिषदिक-ऋषियों ने एकात्मता की चेतना को जाग्रत कर सामाजिक-जीवन के विनाशक घृणा एवं विद्वेष के तत्त्वों को समाप्त करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर, उन्होंने सम्पत्ति के वैयक्तिक-अधिकार का निरसन कर ईश्वरीसम्पदा अर्थात् सामूहिक-सम्पदा का विचार भी प्रस्तुत किया। ईशावास्योपनिषद् के प्रारम्भ में ही ऋषि कहता है : ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् // अर्थात्, इस जग में जो कुछ भी है, वह सभी ईश्वरीय है, ऐसा कुछ नहीं है, जिसे वैयक्तिक कहा जा सके / इस प्रकार, श्लोक के पूर्वार्द्ध में वैयक्तिक-अधिकार का निरसन करके समष्टि को प्रधानता दी गई है / श्लोक के उत्तरार्द्ध में व्यक्ति के उपभोग एवं संग्रह के अधिकार को मर्यादित करते हुए कहा गया कि प्रकृति की जो भी उपलब्धियाँ हैं, उनमें दूसरों (अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों) का भी भाग है, अतः उनके भाग को छोड़कर ही उनका उपयोग करो, संग्रह या लालच मत करो, क्योंकि सम्पत्ति किसी एक की नहीं है। सम्भवतः, सामाजिक-चेतना के विकास के लिए इससे अधिक महत्वपूर्ण दूसरा कथन नहीं हो सकता था। यही कारण था कि गांधीजी ने इस श्लोक के सन्दर्भ में कहा था कि भारतीय-संस्कृति का सभी कुछ नष्ट हो जाए, किन्तु यह श्लोक बना रहे, तो यह अकेला ही उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ है। 'तेन त्यक्तेन भुंजीथाः' में समग्र सामाजिक-चेतना केन्द्रित दिखाई देती है। . गीता में सामाजिक-चेतना यदि हम उपनिषदों से महाभारत और उसके ही एक अंश गीता की ओर आते हैं, तो यहाँ भी हमें सामाजिक-चेतना का स्पष्ट दर्शन होता है। महाभारत तो इतना व्यापक ग्रन्थ है कि उसमें उपस्थित समाज-दर्शन पर एक स्वतन्त्र महानिबन्ध लिखा जा सकता है। सर्वप्रथम महाभारत में हमें समाज की आंगिक-संकल्पना का वह सिद्धान्त परिलक्षित होता है, जिस पर पाश्चात्य-चिन्तन में सर्वाधिक बल दिया गया हैं। गीता भी इस एकात्मता की अनुभूति पर बल देती है। गीताकार कहता है. कि

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