Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 269
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-731 जैन- आचार मीमांसा-263 किन्तु प्रश्न यह है कि क्या आसक्ति या राग से ऊपर उठने की बात सामाजिक-जीवन से अलग करती है / सामाजिक-जीवन का आधार पारस्परिक-सम्बन्ध है और सामान्यतया यह माना जाता है कि राग से मुक्ति या आसक्ति की समाप्ति तभी सम्भव है, जबकि व्यक्ति अपने को सामाजिक-जीवन से या पारिवारिक-जीवन से अलग कर ले, किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है / न तो सम्बन्ध तोड़ देने मात्र से राग समाप्त हो जाता है, न राग के अभाव-मात्र से सम्बन्ध टूट जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि राग या आसक्ति की उपस्थिति में हमारे यथार्थ सामाजिक-संबंध ही नहीं बन पाते। सामाजिकजीवन और सामाजिक-संबंधों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है / सामान्यतया, राग द्वेष का सहगामी होता है और जब सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़े होते हैं, तो इन संबंधों से टकराहट एवं विषमता स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है। बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं - ... उपद्रवा ये च भवन्ति लोके यावन्ति दुःखानि भयानि चैव। सर्वाणि तान्यात्मपरिग्रहेण तत् किं ममानेन परिग्रहेण // आत्मानमपरित्यज्य दुःखं त्यक्तुं न शक्यते। यथाग्निमपरित्यज्य दाहं त्यक्तुं न शक्यते / संसार के सभी दुःख और भय एवं तजन्य उपद्रव ममत्व के कारण होते हैं / जब तकं ममत्व-बुद्धि का परित्याग नहीं किया जाता, तब तक इन दुःखों की समाप्ति सम्भव नहीं है, जैसे अग्नि का परित्याग किए बिना तज्जन्य दाह से बचना असम्भव है। राग हमें सामाजिक-जीवन से जोड़ता नहीं है, अपितु तोड़ता ही है। राग के कारण मेरा या ममत्व-भाव उत्पन्न होता है। मेरे संबंधी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र-ये विचार विकसित होते हैं और उसके परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और संकुचित राष्ट्रवाद का जन्म होता है / आज मानव-जाति के सुमधुर सामाजिक-सम्बन्धों में ये ही सबसे अधिक बाधक तत्त्व हैं / ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठने देते हैं। वे ही आज की विषमता के मूल कारण हैं। भारतीय-दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिकता की एक यथार्थ दृष्टि ही प्रदान की है। प्रथम तो यह कि राग किसी पर होता है और जो किसी पर होता है, वह सब पर नहीं हो सकता है, अतः राग से ऊपर उठे बिना या आसक्ति को छोड़े बिना सामाजिकता की सच्ची भूमिका प्राप्त

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