Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 270
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-732 जैन - आचार मीमांसा -264 नहीं की जा सकती। सामाजिक-जीवन की विषमताओं का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा ही है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है, उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है, उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक-जीवन में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किए जाते हैं, जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं / यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम अपनी रागात्मकता या ममत्ववृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें, किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि उसका एक सीमा तक विजर्सन किए बिना अपेक्षित सामाजिक-जीवन का विकास नहीं हो सकता। व्यक्ति का.ममत्व, चाहे वह व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक-जीवन या राष्ट्र की सीमा तक विस्तृत हो, हमें स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता। स्वहित की वत्ति, चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से सामाजिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा सामाजिक-जीवन फलित नहीं हो सकता। जिस प्रकार परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप हममें राष्ट्रीय-चेतना का विकास नहीं कर सकता, उसी प्रकार राष्ट्रीयता के प्रति भी ममत्व सच्ची मानवीय-एकता में सहायक सिद्ध नहीं हो सकता। इस प्रकार, हम देखते हैं कि व्यक्ति जब तक राग या आसक्ति से ऊपर नहीं उठता, तब तक सामाजिकता का सद्भाव सम्भव नहीं हो सकता। समाज त्याग एवं समर्पण के आधार पर खड़ा होता है, अतः वीतराग या अनासक्त-दृष्टि ही सामाजिक-जीवन के लिए वास्तविक आधार प्रस्तुत कर सकती है और सम्पूर्ण मानव-जाति में सुमधुर सामाजिक-सम्बन्धों का निर्माण कर सकती है। यदि हम सामाजिक-सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता एवं टकराहट के कारणों का विश्लेषण करें, तो उसके मूल में हमारी आसक्ति या रागात्मकता ही प्रमुख है। आसक्ति, ममत्व-भाव या राग के कारण ही मनुष्य में 14 संग्रह, आवेश और कपटाचार के तत्त्व जन्म लेते हैं, अतः यह कहना उचित ही होगा कि इन दर्शनों ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिकविषमताओं को समाप्त करने एवं सामाजिक-समत्व की स्थापना करने में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है। समाज त्याग एवं समर्पण पर खड़ा होता है, जीता है और विकसित होता है-यह भारतीय-चिन्तन का महत्वपूर्ण निष्कर्ष है। वस्तुतः, आसक्ति या रागतत्त्व की उपस्थिति में सच्ची सार्वभौम सामाजिकता फलित नहीं होती है। सामाजिकता का आधार राग या विवेक? सम्भवतः, यहाँ यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि रांग के अभाव में

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