Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 209
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-671 जैन - आचार मीमांसा-203 बात पर हमारा कोई लक्ष्य नहीं जाता। यद्यपि कभी-कभी जमीकन्द खाना चाहिए या नहीं खाना चाहिए, ऐसे छोटे-छोटे प्रश्न उठा लिये जाते है, किन्तु श्रावक-आचार की मूलभूत दृष्टि क्या हो ? और उसके लिए युगानुकूल सर्वसामान्य आचार विधि क्या हो ? इस बात पर हमारी कोई दृष्टि नहीं जाती। यह एक शुभ संकेत है कि अखिल भारतीय जैन विद्वत् परिषद् ने इस प्रश्न को लेकर एक विचार-गोष्ठी आयोजित की यद्यपि यह एक प्रारम्भिक बिन्दु है किन्तु मुझे विश्वास है कि यह प्राथमिक प्रयास भी कभी बृहद् रूप लेगा और हम अपने श्रावक वर्ग को एक युगानुकूल आचार-विधि दे पाने में सफल होंगे। श्रमणाचार जैन-दर्शन में श्रमण-जीवन का स्थान- जैन–परम्परा सामान्यतया श्रमण-परम्परा है, इसलिए उसमें श्रमण-जीवन को प्रधान माना गया है। बृहद्कल्पसूत्र के अनुसार, प्रथमतः प्रत्येक आगन्तुक को यतिधर्म का ज्ञान कराना चाहिए और यदि वह उसके पालन में असमर्थता प्रकट करे, तो गृहस्थधर्म का उपदेश करना चाहिए। जैन धर्म में श्रमण का तात्पर्य - जैन-परम्परा में श्रमण-जीवन का तात्पर्य पापविरति है। जैन परम्परा के अनुसार, श्रमण-जीवन में व्यक्ति को बाह्य-रूप से समस्त पापकारी (हिंसक) प्रवृत्तियों से बचाना होता है, साथ ही आन्तरिक रूप से उसे समस्त रागद्वेषात्मक-वृत्तियों से ऊपर उठना होता है। श्रमण-जीवन का तात्पर्य 'श्रमण' शब्द की व्याख्या से ही स्पष्ट हो जाता है। प्राकृत-भाषा में श्रमण के लिए 'समण' शब्द का प्रयोग होता है। 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं - 1. श्रमण, 2. समन और 3. शमन। 1. "श्रमण" शब्द श्रम धातु से बना है। इसका अर्थ है-परिश्रम या प्रयत्न करना, अर्थात् जो व्यक्ति अपने आत्म-विकास के लिए परिश्रम करता है, वह श्रमण है। 2. समन शब्द के मूल में सम् है, जिसका अर्थ है-समत्वभाव / जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने समान समझता है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखता है, वह श्रमण कहलाता है।

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