Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 212
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-674 जैन - आचार मीमांसा -206 कि मध्यवर्ती युग में कुछ जातियाँ श्रमण-दीक्षा के लिए वर्जित मानी गई थी। संभवतः, ऐसा ब्राह्यण-परम्परा के प्रभाव के कारण हुआ हो, ताकि श्रमण-संस्था को लोगों में होने वाली टीका-टिप्पणी से बचाया जा सके। 'धर्म संग्रह' के अनुसार श्रमण-दीक्षा ग्रहण करने वाले में निम्न योग्यताएँ होनी चाहिए'- 1. आर्य देश समुत्पन्न, 2. शुद्धजातिकुलान्वित, 3. क्षीणप्रायाशुभकर्मा, 4. निर्मलबुद्धि, 5. विज्ञातसंसारनैर्गुण्य, 6. विरक्त, 7. मंदकषाय, 8. अल्पहास्यादि, 9.कृतज्ञ, 10. विनीत, 11. राजसम्मत, . 12. अद्रोही, 13. सुन्दर, सुगठित एवं पूर्ण शरीर, 14. श्रद्धावान्, 15. स्थिर-विचार और 16. स्व-इच्छा से दीक्षा के लिए तत्पर / जैन श्रमणों के प्रकार जैन-परम्परा में श्रमणों का वर्गीकरण उनके आचार-नियम तथा साधनात्मक योग्यता के आधार पर किया गया है। आचरण के नियमों के आधार पर श्वेताम्बर-परम्परा में दो प्रकार के साधु माने गए हैं - (1) जिनकल्पी और (2) स्थविरकल्पी। जिनकल्पी मुनि सामान्यतया नग्र एवं पाणिपात्र होते हैं तथा एकाकी विहार करते हैं, जबकि स्थविरकल्पी मुन सवस्त्र, सपात्र एवं संघ में रहकर साधना करते हैं। स्थानांगसूत्र में साध नात्मक योग्यता के आधार पर श्रमणों का वर्गीकरण इस प्रकार है - (1) पुलाक - जो श्रमण–साधना की दृष्टि से पूर्ण पवित्रता को प्राप्त नहीं हुए हैं। (2) बकुश - वे, जिन साधकों में थोड़ा कषाय-भाव एवं आसक्ति होती है। (3) कुशील - जो साधु भिक्षु-जीवन के प्राथमिक–नियमों का पालन करते हुए भी द्वितीयक-नियमों का समुचित रूप से पालन नहीं करते हैं। ये सभी वास्तविक साधु-जीवन से निम्न श्रेणी के साधक हैं। (4) निर्ग्रन्थजिनकी मोह और कषाय की ग्रन्थियाँ क्षीण हो चुकी हैं। (5) स्नातकजिनके समग्र घातीकर्म क्षय हो चुके हैं। ये दोनों उच्चकोटि के श्रमण हैं। जैन श्रमण के मूलगुण जैन-परम्परा में श्रमण-जीवन की कुछ आवश्यक योग्यताएँ मानी हैं, जिन्हें मूलगणों के नाम से जाना जाता है। दिगम्बर-परम्परा के मूलाचार-सूत्र में श्रमण के 28 मूलगुण माने गए हैं - 1-5. पाँच महाव्रत, 6-10. पाँच इन्द्रियों का संयम, 11-15. पाँच समितियों का परिपालन, 16-21. छह

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