Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 245
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-707 जैन- आचार मीमांसा-239 देना, 16. साधु को गाँव में आया जानकर अपने लिए बनाए जाने वाले भोजन में और बढ़ा देना। (आ) उत्पादन के 16 दोष - 1. धात्री-धाय की तरह गृहस्थ के बालकों को खिला-पिला कर, हंसा-रमा कर आहार लेना, 2. दूती-दूत के समान संदेशवाहक बनकर आहार लेना, 3. निमित्त - शुभाशुभ निमित्त बताकर आहार लेना, 4. आजीव-आहार के लिए जाति, कुल आदि बताना, 5. वनीपक - गृहस्थ की प्रशंसा करके भिक्षा लेना, 6. चिकित्सा - औषधि आदि बताकर आहार लेना, 7. क्रोध - क्रोध करना या शापादि का भय दिखाना, 8. मान - अपना प्रभुत्व जमाते हुए आहार लेना, 9. माया - छल-कपट से आहार लेना, 10. लोभ - सरस भिक्षा के लिए अधिक घूमना, 11. पूर्वपश्चात्संस्तव - दानदाता के माता-पिता अथवा सास-ससुर आदि से अपना परिचय बताकर भिक्षा लेना, 12. विद्या - जप आदि से सिद्ध होने वाली विद्या का प्रयोग करना, 13. मंत्र - मंत्र-प्रयोग से आहार लेना, 14. चूर्ण - चूर्ण आदि वशीकरण का प्रयोग करके आहार लेना, 15. योग - सिद्ध आदि योगविद्या का प्रदर्शन करना, 16. मूलकर्म - गर्भस्तंभग आदि के प्रयोग बताना। (इ) ग्रहणैषणा के 10 दोष,- 1. शंकित-आधाकर्मादि दोषों की शंका होने पर भी लेना, 2. मेक्षित - सचित्त का संघट्ट होने पर आहार लेना, 3. निक्षिप्त - सचित्त पर रखा हुआ आहार लेना, 4. पिहित - सचित्त से ढका हुआ आहार लेना, 5. संहृत - पात्र में पहले से रखे हुए अकल्पनीय पदार्थ को निकालकर उसी पात्र से लेना, 6. दायक - शराबी, गर्भिणी आदि अनाधिकारी से लेना, 7. उन्मिश्र - सचित्त से मिश्रित आहार लेना, 8. अपरिणत - पूरे तौर पर बिना पके शाकादि लेना, 9. लिप्त - दही, घृत आदि सें लिप्त पात्र या हाथ से आहार लेना, पहले और पीछे हाथ धोने के कारण क्रमशः पूर्वकर्म तथा पश्चात्कर्म-दोष होता है। 10. छर्दित-छींटे नीचे पड़ रहे हों, ऐसा आहार लेना। (ई) ग्रासैषणा के 5 दोष - 1. संयोजन - रसलोलुपता के कारण दूध और शकर आदि द्रव्यों को परस्पर मिलाना, 2. अप्रमाण - प्रमाण से अधिक भोजन करना, 3. अंगार - सुस्वादु भोजन की प्रशंसा करते हुए

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