Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 248
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-710 जैन- आचार मीमांसा-242 जैनधर्म का सामान्य आचार पूर्व में हमने दो अध्यायों में गृहस्थ और मुनि के आचार सम्बन्धी चर्चा की है, किन्तु जैन आचार में कुछ आचार व्यवस्थाएँ सामान्य भी होती हैं। सामान्य आचार के रूप में निम्न नियमों को उल्लेखित किया गया है / षटआवश्यक कर्म चार कषायों और दस धर्मों का परिचालन और अन्त में समाधिमरण की साधना सभी के लिए आवश्यक मानी गई है। षट् आवश्यक में निम्न साधनाअपेक्षित होती है-(1) सामायिक, (2) स्तवन, (3) वंदन (4) प्रतिक्रमण, (5) कायोत्सर्ग और (6) प्रत्याख्यान (त्याग)। इन षट् आवश्यकों की साधना का लाभ यह माना गया है कि इनके माध्यम से साधक विकास की पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है। इनमें सर्वप्रथम सामायिक का क्रम सामायिक (समता) सामायिक समत्ववृत्ति की साधना है। जैनाचारदर्शन में समत्व की साधना नैतिकजीवन का अनिवार्य तत्त्व है। वह नैतिक-साधना का अथ और इति-दोनों है। समत्व-साधना के दो पक्ष हैं, बाह्य-रूप में वह सावध (हिंसा) प्रवृत्तियों का त्याग है, तो आन्तरिक-रूप में वह सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव (सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति) तथा सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभअलाभ, निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखता है, लेकिन दोनों पक्षों से भी ऊपर वह विशुद्ध रूप में आत्मरमण या आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्न है। सम का अर्थ-आत्मभाव (एकीभाव) और अय का अर्थ है-गमन / जिसके द्वारा पर-परिणति (बाह्यमुखता) से आत्म-परिणति (अन्तर्मुखता) की ओर जाया जाता है, वही सामायिक है। 12 सामायिक समभाव में है, वह राग-द्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थता रखना है। माध्यस्थ-वृत्ति ही सामायिक है। सामायिक कोई रूढ़ क्रिया नहीं, वह तो समत्ववृत्तिरूप पावन आत्म-गंगा में अवगाहन है,जो समग्र राग-द्वेषजन्य कलुष को आत्मा से अलग कर मानव को विशुद्ध बनाती है। संक्षेप में, सामायिक एक ओर चित्तवृत्ति का समत्व है, तो दूसरी ओर पाप-विरति। समत्व-वृत्ति की यह साधना सभी वर्ग, सभी जाति और सभी धर्म वाले कर सकते हैं। किसी वेशभूषा और धर्म-विशेष से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। भगवतीसूत्र में कहा है, कोई भी मनुष्य, चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, जैन हो या अजैन, समत्ववृत्ति की आराधना कर सकता है। वस्तुतः, जो समत्ववृत्ति की साधना करता है, वह जैन ही है, चाहे वह किसी जाति, वर्ग या धर्म का क्यों न हो। एक आचार्य कहते हैं कि चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य

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