Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 231
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-693 जैन - आचार मीमांसा -225 इसकी विस्तृत चर्चा सत्य-महाव्रत के संदर्भ में की जा चुकी है। 3. एषणा-समिति - एषणा का सामान्य अर्थ आवश्यकता या चाह होता है। साधक गृहस्थ हो या मुनि, जब तक शरीर का बन्धन है, जैविक-आवश्यकताएं उसके साथ लगी रहती हैं, जीवन धारण करने के लिए आहार, स्थान आदि की आवश्यकताएँ बनी रहती हैं। मुनि को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति याचना के द्वारा किसी प्रकार करना चाहिए, इसका विवेक रखना ही एषणा-समिति है। एषणा का एक अर्थ खोज या गवेषणा भी है। इस अर्थ की दृष्टि से आहार, पानी, वस्त्र एवं स्थान आदि विवेकपूर्वक प्राप्त करना एषणा-समिति है। मुनि को निर्दोष भिक्षा एवं आवश्यक वस्तुएँ ग्रहण करनी चाहिए। मुनि की आहार आदि ग्रहण करने की वृत्ति कैसी होनी चाहिए, इसके संबंध में कहा गया है कि जिस प्रकार भ्रमर विभिन्न वृक्षों के फूलों को कष्ट नहीं देते हुए अपना आहार ग्रहण करता है, उसी प्रकार मुनि भी किसी को कष्ट नहीं देते हुए थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करे। मुनि की भिक्षाविधि को इसीलिए मधुकरी या गोचरी कहा जाता है। जिस प्रकार भ्रमर फूलों को बिना कष्ट पहुँचाए उसका रस ग्रहण कर लेता है; या गाय घास को ऊपर- ऊपर से थोड़ा खाकर अपना निर्वाह करती है, वैसे ही भिक्षुक को भी दाता को कष्ट न हो, यह ध्यान रखकर अपनी आहार आदि आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए। - भिक्षा के निषिद्ध स्थान - मुनि के निम्न स्थानों पर भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए - 1. राजा का निवासस्थान, 2. गृहपति का निवासस्थान, 3. गुप्तचरों के मंत्रणा-स्थल तथा 4. वेश्याओं के निवासस्थान के निकट का सम्पूर्ण क्षेत्र, क्योंकि इन स्थानों पर भिक्षावृत्ति के लिए जाने पर या तो गुप्तचर के संदेह में पकड़े जाने का भय होता है, अथवा लोकापवाद का कारण होता है। - भिक्षा के हेतु जाने का निषिद्ध काल - जब वर्षा हो रही हो, कोहरा पड़ रहा हो, आंधी चल रही हो, मक्खी-मच्छर आदि सूक्ष्म जीव उड़ रहे हों, तब मुनि भिक्षा के लिए न जाए। इसी प्रकार, विकाल में भी भिक्षा के हेतु जाना निषिद्ध है। जैन-आगमों के अनुसार, भिक्षुक दिन के प्रथम प्रहर * में ध्यान करे, दूसरे प्रहर में स्वाध्याय करे और तीसरे प्रहर में भिक्षा के हेतु

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