Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 234
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-696 जैन- आचार मीमांसा-228 परीषह परीषह शब्द का अर्थ है - कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना। यद्यपि तपश्चर्या में भी कष्टों को सहन किया जाता है, लेकिन तपश्चर्या और परीषह में अन्तर है। तपश्चर्या में स्वेच्छा से कष्ट सहन किया जाता है, जबकि परीषह में स्वेच्छा से कष्ट सहन नहीं किया जाता, वरन् मुनि-जीवन के नियमों का परिपालन करते हुए आकस्मिक रूप से यदि कोई संकट उपस्थित हो जाता है, तो उसे सहन किया जाता है। कष्ट-सहिष्णुता मुनि-जीवन के लिए आवश्यक है, क्योंकि यदि वह कष्ट-सहिष्णु नहीं रहता है, तो वह अपने नैतिक-पथ से कभी भी विचलित हो जाएगा। जैन-मुनि के जीवन में आने वाले कष्टों का विवेचन उत्तराध्ययन और समवायांग में है। जैन-परम्परा में 22 परीषह माने गए हैं - . 1. क्षुधा परीषह - भूख से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी भिक्षु नियम–विरूद्ध आहार ग्रहण न करे, वरन् समभावपूर्वक भूख की वेदना सहन करे। 2. तृषा-परीषह - प्यास से व्याकुल होने पर भी मुनि नियम के प्रतिकूल सचित्त जल न पीए, वरन् प्यास की वेदना सहन करे। 3. शीत-परीषह - वस्त्राभाव या वस्त्रों की न्यूनता के कारण शीत-निवारण न हो, तो भी आग में तपकर, अथवा मुनि-मर्यादा के विरूद्ध शय्या को ग्रहण कर उस शीत की वेदना का निवारण नहीं करे। ___4. उष्ण-परीषह - ग्रीष्म ऋतु में गर्मी के कारण शरीर में व्याकुलता हो, तो भी स्नान या पंखे आदि के द्वारा हवा करके गर्मी को शांत करने का यत्न न करे। 5. दंश-मशक-परीषह - डांस, मच्छर आदि के काटने के कारण दुःख उत्पन्न हो, तो भी उन पर क्रोध न करे, उन्हें त्रास न दे, वरन् उपेक्षाभाव रखे। 6. अचेल-परीषह - वस्त्रों के अभाव एवं न्यूनता की स्थिति में मुनि वस्त्राभाव की चिन्ता न करे और न मुनि - मर्यादा के विरूद्ध वस्त्र ग्रहण ही करे।

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