Book Title: Historical Facts About Jainism Author(s): Lala Lajpatrai Publisher: Jain Associations of India MumbaiPage 63
________________ 51 जैन मत जबसे प्रचलित हुआ है। जबसे संसारमें मुष्टिका आरम्भ हुआ तक्मे यही इल्का सत्य उत्तर है। इसमें किसी प्रकारका उज्र नहीं है कि जैन दर्शन वेदान्तादिदर्शनांसे भी पूर्वका है। तनही तो भगवान् वेदव्यासमहर्षि ब्रह्मसूत्रामें कहते हैं। नैकस्मिन्नऽसंभवात x x x x x वेदांमें अनेकान्त वादका मूल मिलता है। अनेकान्तवाद तो एक ऐसी चीज है कि- उसे सबको मानना हाना, और लोगांने मानाभी है। देखिये विष्णुपुराण अध्याय ६ द्वितीयांशमें लिया है नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम । वस्त्वेकमेव दुःखाय मुखायेयोद्भवाय च । कापाय च यतस्तरमाद्वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः ॥ ४ ॥ NOTE No. 2. Of these texts our knowledge of the Jains is otherwise derived from the Brahmanic sources only all that has hitherto been published is a fragment of the fiftl. Anga or Bhagvati Sutra." Waher's History of the Indian Literature P. 297. NOTE No. 3. नैद्रं तद्वर्द्धमान स्वस्ति न इंद्रोवृद्धश्रवाः स्वस्तिनः पुरुषा विश्ववेदाः स्वस्ति नस्ता क्योरिष्टनेमिः स्वस्ति नः बृहस्पतिर्दधातु ॥ (यजुर्वेदे वैश्वदेवऋचौ) तत्व निर्णय प्रासाद पृ. ५०९ दधातु दोर्पा युस्त्वाय बलाय वर्चसे सुप्रजास्त्वाय रक्ष रक्ष रिष्टनेमि स्वाहा ॥ (बृहदारण्यके) तत्वनिर्णय प्रासाद पृ. ५०९ ऋषभ एव भगवान् ब्रह्मा तेन भगवता ब्रह्मणा स्वयमेवाचीर्णानि ब्रह्माणि तमसा च प्राप्तः परं पदम् ॥ (आरण्यके) तत्वनिर्णय प्रासाद पृ. ५.९Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145