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PART III.
DRAFT NOTE. The following is the draft note prepared by the Jain Association of India, at the request of Shriyut Lala Lajpatrai, for publication in his book " भारत वर्षका इतिहास" instead of the matter regarding "Jainism" that appears in the first edition of the book.
जैनलोग अपने धर्मको अनादि मानते हैं, परंतु इस जैनधर्मका
, अवसर्पिणीकालमें जैनधर्मके आदि प्रवत्तर्क
" श्री रिषमदेवजी माने गये हैं । यह रिषभदेव अनादित्व. चौवीसमेंसे पहले तिर्थकरथे.
यद्यपि श्री रिषभदेवजीकी विद्यमानता इतिहासकी पहुंचसे पहले की है, तथापि उनकी मूर्तिकी पूजातो भगवान महावीरके निकट समयमें भी होती थी, यहवात शिलालेखों और प्रतिमा लेखोंसे सिध्धहो चुकी है.
भगवान श्री पार्श्वनाथस्वामी और श्री महावीर स्वामी जैनोंके तेइसमें और चौवीसमें तीर्थकरथे, अंतिम तीर्थकर श्री महावीर (वर्धमान) ने पूर्व तीर्थंकरों द्वाग उपहिष्ट धर्मका पुनउद्धार मात्र किया है । मगर मूलतत्वतो वोका वोही रहा है जोकी श्री रिषभदेवजीसे चला आया है.
अतः यह कहना “ कि श्री महावीरने एक नवीन संप्रदायकी नीवडाली" यह भ्रममूलक है । और श्री महावीरके प्रचारित शासनका स्वीकारफर श्री पार्श्वनाथजीके विद्यमान साधु श्री महावीरके संप्रदायमें संमिलित हो गये.
जैनोंके कल्पसूत्र तथा श्री भागवत पुराणादि प्राचीन ग्रंथोंमेंमी श्री रिषभदवजीके आदि तीर्थकर होनेका उल्लेख है।