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हिन्दी नाटककार
आदि वीरतापूर्ण कार्य-कलापों के कारण कोई पूर्वज पूज्य बनता था। वीरपूजा के बाद देव-पूजा प्रारम्भ हुई । वे भी वीरता के कारण ही पूज्य बने । तभी हिन्दुओं के सभी अवतार प्रायः वीरता के प्रतीक हैं। भारत में नृसिंहावतार, वराह-लीला के श्रादि के ढंग के स्वाँगों, रासलीला या रामलीला के समान उत्सवों में नाटक का जन्म हुआ और यूनान में डोयोनिसस देवता के अनुकरण में किये गए नृत्यों से उसी स्वाभाविक क्रम से नृत्यों में गीतों का समावेश, कुछ काल बाद जीवन की घटनाओं का मेल फिर संवादों का योग ।
सफलताओं के उत्सवों, ऋतु-पर्यो, धार्मिक अनुष्ठानों, फसल श्रादि के बोये जाने या पकने, विजय आदि के अवसरों पर किये नाच-गानों से नाटक को गति मिली । नाटक के विकास में धर्म और वीर-पूजा का विशेष हाथ है। इसीलिए हर देश में प्रारम्भिक नाटकों पर धर्म का बहुत प्रभाव है। नाटक का महत्त्व
ललित कलाओं में काव्य को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। भावों की प्रानुपातिक सघनता; अधिकता और प्रभाव के स्थायित्व के कारण यह निर्णय किया गया है। आधार या साधन जितना भी छोटा होता जाय और रस जितना भी अधिक, कला भी उतनी ही श्रेष्ठ मानी जाती है। इसका अर्थ हुआ बाह्य साकार आधार की कम से-कम आवश्यकता हो । और अधिकसे-अधिक आनन्द सामाजिक पा सके। यह बात किसी सीमा तक सही है, पूर्णरूपेण नहीं। जिस कला से अधिक से अधिक रसानुभूति हो, वही सर्व श्रेष्ठ है। रस-विचार मुख्य है आधार गौण । काव्य से अन्य कलाओं की अपेक्षा अधिक अानन्द मिलता है-रसानुभूति होती है, और प्रभाव भी चिर काल तक रहता है। इसीलिए वह सर्वश्रेष्ठ कला है। ___ काव्यों-श्रव्य और दृश्य-में नाटक श्रेष्ठ है। मुक्तक, गीति, प्रबन्ध आदि काव्य पढ़ने या सुनने से इतनी तीव्र रसानुभूति नहीं हो सकती, जितनी नाटक देखने से । काव्यकारों को शब्दों द्वारा भावों का बिम्ब खड़ा करना पड़ता है। जब तक हमारी आँखों में किसी भाव विशेष का चित्र अङ्कित न हो जाय, हम अानन्द नहीं ले सकते । शब्दों द्वारा कवि चाहे जितना प्रतिभावान हो, वैसा यथार्थ बिम्ब उपस्थित नहीं कर सकता, जैसा नाटक में अभिनेताओं द्वारा किया जा सकता है। मूर्त का प्रभाव अमूर्त के प्रभाव से अधिक स्थायी होगा ही । नाटक में सामाजिक सब-कुछ सामने होते हुए देखता है।