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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का वृहद् इतिहास मंगलकलश तणो प्रबंध, करैवा मुझ राग,
शांतिनाथ जिन चरित थी उधरिस्यु फाग। अन्त-संपत सोलहइ ऊपरि गुण पंचास,
ओ कीधो मंगल कलश चरित्र विलास । श्री जिनचंद सूरिंद गुरु वर्तमान गणधार,
सुविहित मुनि चूड़ामनि जुग प्रधान अवतार । खरतरगच्छ सुहागनिधि अमरमाणिक गुरु सीस,
कनकसोम वाचक कहइ मंगल चरित जगीस । आपने अपने गुरु भाई साधुकीति की प्रशंसा में 'जइतपदवेलि' नामक गीत की रचना की है। यह गीत ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में 'जिनचंद सूरि गीतानि' शीर्षक से २५ वें क्रम पर प्रकाशित-संकलित है। यह गीत सं० १६२८ का है। जिनमाणिक्य के पट्ट पर सं० १६१२ में जिनचंदसूरि प्रतिष्ठित हुए थे। ऐतिहासिक पट्टावली की दृष्टि से यह गीत महत्वपूर्ण है। यह ४९ कड़ी की रचना है। इसमें कवि ने ओजस्वी वक्ता साधुकीर्ति की तुलना अगस्त आदि ऋषियों से की है। यथा--'साधुकीति संस्कृत बोलइ, खरतर कहि केहनइ तोलई' इसकी भाषा में एम, छे, जेम आदि गुर्जर प्रयोग अधिक हैं। साधुकीर्ति ने "एक शास्त्रार्थ में जो आगरा में सुल्तान के समक्ष हुआ था, तपागच्छीय बुद्धिसागर की बुद्धि को अगस्त की तरह सोखकर उन्हें परास्त कर दिया था। यही इस गीत का विषय है।' इसकी अन्तिम ४९वीं कड़ी इस प्रकार है
'दया अमरमाणिक्य गुरु सीस, साधुकीति कही जगीस ।
मुनि कनकसोम इम भाखइ, चहुविह संघ की साखई ।' इनकी गद्य रचनाओं का उल्लेख पहले किया जा चुका है इस प्रकार ये मरुगुर्जर गद्य-पद्य के श्रेष्ठ लेखक प्रमाणित होते हैं। आप उच्चकोटि के संत भी थे। आपका विहार राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश और पंजाब तक होता रहता था, आप के दो-तीन शिष्य भी अच्छे कवि थे जिनमें रंगकुशल, लक्ष्मीप्रभ और कनकप्रभ का नाम विशेष उल्लेखनीय है। ___ कनक सौभाग्य -तपागच्छीय विजयसेनसूरि आपके गुरु थे। आपने सं० १६६४ में एक ऐतिहासिक काव्य 'रंगरत्नाकर रास' नाम से लिखा १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह-जिनचन्द सूरि गीतानि (२५वां गीत)
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