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१३६ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन गोताम इतिहासको शुष्क धाराको कितना शीतल और सरस बनानेका प्रयास किया है
आन मेरे मनकी आश फली। श्री जिनसिंह सूरी मुख देखत, आरति दूर टली ॥१॥ श्री जिनचन्द्र सूरि सई सत्यह, चतुर्विध संघ मिली। गाही हुकम आचारज पदवी, दीधी अधिक भली ॥२॥ कोडिवरिम मंत्री श्री करमचन्द्र, उत्सव करत रली ॥ 'समयसुन्दर' गुरुके पदपंकन, लीनो जैम अली ॥३॥ निम्न गीतमें जिनसागर सरिक जन्मका निरूपण करते हुए बताया गया है कि बीकानेर नगरमै बोथरा गोत्रीय शाह वच्चा निवास करते थे, इनकी भायांका नाम मृगादे था। जब यह सूरीश्वर गर्मम आये तो माताको 'रक्तचोल रत्नावलीका स्वप्न', आया, उसीके अनुसार इनका नाम 'चोला' रखा गया। कालान्तरमे यह श्रीनिनसिंह सूरिजीसे दीक्षा लेकर साधु बन गये और इनका नाम जिनसागर मरि पडा । उसके चमकार और महत्त्वको प्रकट करने वाले अनेक गीत है।
सुख भरि सूती सुन्दरी, देखि सुपन मध राति । रगत चोल रत्नावली. पिठ ने कहह ए बात ॥ सुणी वचन निज नारि ना, मेघ घटा निम मोर । हरख भणइ सुत ताहरइ, थासइ चतुर चकोर ॥ आस फली भाइरी मन मोरी, कुखइ कुमर निधान रे। मनवांछित दोहला सवि पूरइ, पामइ अधिकट मान रे॥ संवत 'सोलवावन्ना' वरपइ 'काती सुदी' रविवार रे। चउदसिने दिनि असिनि नक्षत्रह जनम थयो सुखकार रे॥ १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० २४१-'सुण रे पन्थियाँ गीत, पृ० २४५, पृ० २४६ 'नीही पन्यी' गीत।