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कि और धनका मत् भावना है। स्वार्थ
हिन्दी-जन-साहित्य परिशीलन तेरह धूर्त आत्माकै निजी धन अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यको चुराते रहते हैं। __ पहला धूतं जुआ है। मानव जीवनमे सबसे बड़ी अशान्ति इसीके कारण उत्पन्न होनी है । यह प्रमुता, शुभकृत्य, मुयश, धन और धर्मका ह्रास करता है। जुआरी व्यक्ति सबसे प्रथम अपने वैभव और साखसे हाथ धोता है । मान-मर्यादा और ऐश्वर्य समी जुआके कारण नष्ट हो जाते है । आत्मोत्थानके कार्याने प्रवृत्ति नहीं होती है, निन्द्य और खोटे कामोम शक्ति और धनका व्यय होता है । जगत्म जुआरीका अपयश भी फैल जाता है। हृदयकी सत् भाग्नाएँ समाम हो जाती हैं और आसुरीभावनाओंका प्रतिष्ठान होने लगता है। स्वार्थ और हिंसा प्रवृत्ति जो व्यक्ति और समाज दोनोके लिए अत्यन्त अहितकारक है; जुयाकै कारण ही जन्म-ग्रहण करती है। ___ दूसरा धूर्त है आलस | यह जीवनकै मन्दाकिनी-प्रवाहको पर्वतके उस सूने पथपर ले जाता है, जहाँ लहर उठती है और कगारकी गोटमं जाकर विलीन हो जाती है। जीवनमसे श्रद्धा, विश्वास और कर्तव्य-पगयणता निकल जाती है तथा हृदय-मण्डलम धूल और राख मर जाती है । जीवन शितिज अन्धकाराच्छन्न हो ज्ञान-मार्गको अवरुद्ध करनेमें सहायक वनता है, शान्त-सरोवरकी मधुर चाँदनी अस्ताचलकी ओर प्रस्थान कर देती है तथा भावनाओंका उठना बन्द हो जाता है और झपकी आने लगती है। बाह्य जगत्का हाहाकार अन्तर्नगत्म भी मुखरित होने लगता है। प्रेमका पपीहा अध्यात्मरस न मिलनेसे प्यासा ही रह जाता है। जीवनकी ओर गतिशील होनेकी कामना सुख-स्वप्न हो जाती है और जीवन बेठकी दुपहरियाकै समान प्रमादकै कारण दहकता है। कविका कहना है कि प्रमाद का अभाव होनेपर ही जीवन-शितिन रम्प प्रकाश-रदिमोसे व्यात हो सकता है।
तीसरा धूर्त शोक है, यह सन्ताप-वीजको उत्पन्न कर आत्माकी धैर्य