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हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन
मेरा ही है, यदि मैं उपदेश न सुनूँ तो यह जीव कभी भी मोक्ष प्राप्त करनेका प्रयत्न नहीं कर सकता है। द्वादशाग वाणीका श्रवण मैं ही करता है, मेरी ही प्रेरणाको प्राप्त कर जीव आत्म-कल्याण करनेके लिए तैयार होता है ।"
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कानकी इन अहम्मन्यतापूर्ण वार्तोको सुनकर आँख बोली - "तुझे झूठी बड़ाई करते हुए लज्जा नहीं आई, झूठ बोलना पाप है । तुम नही जानते कि तुम्हारे द्वारा ही अलील और गन्दी बाते सुनकर राग-द्वेप उत्पन्न होता है । तुम्हारे द्वारा सुनी गई बातें झूठी भी हो सकती हैं ; कितने ही व्यक्ति इन झूठी बातोंके कारण आपसमें कलह करते हैं, लड़ते हैं तथा कितने ही लड़-झगड़कर मृत्युको भी प्राप्त हो जाते हैं। मुझसे बड़े तुम कभी नही हो सकते। मेरे द्वारा देखी गयी बात कभी भी झूठी नहीं हो सकती है। सुन्दर और मनोरंजक हव्योका अवलोकन में ही करती हूँ । मेरे द्वारा ही तुम तीर्थकरोके मनोहर रूपको देख सकते हो, मेरे द्वारा ही साधु-सन्तोके दर्शन हो सकते हैं । यदि मैं न रहूँ तो } ससारका काम चलना बन्द हो जाय । शरीरमें सबसे प्रधानता मेरी ही है । सिद्धान्त-ग्रन्थों का अध्ययन मुझसे देखे बिना कोई कैसे कर सकेगा ? रास्ता चलना, देना-लेना, पुण्य कार्य करना मेरी ही कृपाका फल है । मेरे रहनेपर ही भाई-बन्धु इज्जत करते है । एक ही क्षणमे में क्यासे क्या बना देती हूँ ।"
आँखकी इस आत्मश्लाघाको सुनकर रसना वोली - "अरी ! तुझे काजलसे रंगकर भी लज्जा नहीं आती। तेरी ही कृपाका यह फल है कि सुन्दरी रमणियाँ अपने अद्भुत सलोने रुप द्वारा साधु-मुनियोंको भ्रष्ट कर देती हैं । तुझसे अधिक तो मेरा ही प्रभाव है, अतः मैं तुझसे बड़ी हूँ । क्या तू नही जानती कि मैं ही पट्रस व्यंजनोका स्वाद लेती हूँ | मेरे विना शरीर पुष्ट नहीं रहेगा, परिणाम यह होगा कि न कान सुन सकेगा, न आँख देख सकेगी और न नाक सूंघ सकेगी। स्वाद लेनेके अतिरिक्त