Book Title: Hindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 209
________________ भास्मकथा-काव्य व्यापार किया । दो चार जगह लाम भी हुआ, पर जीवनमे धनोपार्जन कमी नहीं कर सका। एकवार आगरा लौटते समय कुरी नामक ग्राममे कवि और कविके साथियोपर झूठे सिक्के चलानेका भयकर अपराध लमाया गया था तथा इनको और इनके साथी अन्य अठारह यात्रियोके लिए मृत्युदण्ड देनेको शूली भी तैय्यार कर ली गयी थी। आत्मकथामे इस सकरका विवरण रोमाचकारक है सिरीमाल वानारसी, अरु महेसरी जाति । करहिं मन्त्र दो जने, भई छमासी राति ॥ पहर राति जब पिछली रही। तब महेसरी ऐसी कही। मेरा लिहुरा भाई हरी । नाउँ सुवौ ब्याहा है वरी ॥ हम आए थे यहाँ घरात । भली याद आई यह वात ॥ वानारसी कहै रे मूढ । ऐसी वत करी क्यों गूढ़ ॥ तब महेसुरी यौं कहै, भयसों भूली मोहि । अव मोकौं सुमिरन भई, द निर्चित मन होहि ।। वब वनारसी हरपित भयो । कछुक सोच रहौ कछु गयो। कबहूँ चित की चिन्ता भगै । कबहूँ बात सठसी लगै॥ यो चिन्तवत भयो परभात । आइ पियादे लागे घात । सूली है मजूरके सीस। कोतवाल भेजी उनईस ॥ ते सराइ मैं डारी मानि । प्रगट पयादा कहै बखानि । तुम उनीस पानी ठग लोग । ए उनीस सूली तुम भोग ।। घरी एक बीते बहुरि, कोतवाल दीवान । आए पुरजन साथ सब, लागे करन निदान ॥ कवि गाईस्थिक दुर्घटनाओंका निरन्तर शिकार रहा। एकके बाद एक इनकी दो पनियोंकी एवं उनके नौ बच्चों की मृत्यु हो जानेपर कविने

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