Book Title: Hindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 219
________________ रीति-साहित्य २२७ कनादिमिर्गही जुगुप्सा । अपूर्ववस्तुदर्शनादिना चित्तविस्तारो विस्मयः। विरागत्वादिना निर्विकारमनस्त्वं शमः। अर्थात्-सम्भोगसम्बन्धी इच्छा विशेपको रति, विकृत वस्तुकै देखने पर जो मनोविनोदकी वाञ्छा उत्पन्न होती है, उसे हास; इष्ट व्यक्तिके वियुक्त होनेपर जो शोक उत्पन्न होता है, उसे शोक; शत्रु या अन्य उपकारीके प्रति मनमे जलन-सन्ताप उत्पन्न होना क्रोध, लोकके उत्कृष्ट कायोंमे दृढ़ प्रयत्न करना उत्साह, भयानक वस्तुको देखकर उससे अनर्थकी आशका करना भया पदार्थोंके दोष देखनेसे उत्पन्न होनेवाली घृणा जुगुप्सा; अद्वितीय वस्तुके देखनेसे मनको विस्तृत करना विस्मय एवं विरक्ति आदिके द्वारा मनका निर्विकारी होना शम है। इन स्थायी भावोंकी अभिव्यक्त दशाका नाम रस है। वाग्भटालकारमे जैनाचार्यने इसी तथ्यका प्रकटीकरण करते हुए कहा है विभावैरनुभावैश्च सात्त्विकैयभिचारिभिः। भारोप्यमाण उत्कर्ष स्थायीभावः स्मृतो रसः ॥ अर्थात्-हमारे हृदयस्थित रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, चुगुप्सा, विस्मय और शमभाव स्थायी रूपसे निरन्तर विद्यमान रहते हैं। जब ये ही भाव अवसर पाकर-विभाव, अनुमाव, सात्विक और व्यभिचारी भावोंके द्वारा उत्कर्षको प्राप्त होते हैं-जाग उठते है, तो रसकी अनुभूति होती है । तात्पर्य यह है कि मानव-हृदयमे सदैव प्रसुप्तावस्थामे विद्यमान रहनेवाले मनोविकारोंसे रसकी सिद्धि होती है। जैन साहित्य-निर्माताओंने लौकिक और अलौकिक दोनो ही अवस्थाओंमें अनिर्वचनीय आनन्दको रस कहा है। कविता पढने या सुनने और नाटक देखनेसे पाठक, श्रोता या दर्शकको अद्वितीय, सासारिक वस्तुओमे अप्राप्य आनन्द उपलब्ध होता है, जो शब्दोंके द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है, वही काव्यमे रस कहलाता है। वस्तुतः काव्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253