Book Title: Hindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 198
________________ २०६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन तीसरी ढालमे जीव, अजीव, आसव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोनका तात्त्विक विवेचन है। कल्याणका मार्ग बतलाता हुआ कवि कहता है यो अनीव अव आस्रव सुनिये, मन-वच-काम त्रियोगा। मिथ्या अविरत अरु कपाय, परमाद सहित उपयोगा ॥ ये ही भातमको दुःख कारण, तातै इनको तनिये । जीव प्रदेश बंधे विधि सौं, सो बंधन कबहु न सजिये । शम दम से जो कर्म न आवै, सो संवर भादरिये । तपवल नै विधि-झरन निर्जरा, ताहि सदा आधरिये ॥ आध्यात्मिक कृति होने के कारण पारिभाषिक जैन शब्दोंकी बहुलता है। फिर भी मानव जीवनको उन्नत बनानेवाले सदेशकी कमी नहीं है। कवि कहता है कि अपने गुण और परके दोषोंको छिपानेसे मानवका विकास होता है । परछिद्रान्वेपणकी प्रवृत्ति समाज और व्यक्तिक विकासमे नितान्त वाधक है। अतएव किसी व्यक्तिके दोपोंको देखकर भी उसे पुनः सन्मार्गमे लगा देना मानवता है। जो व्यक्ति इस मानवधर्मका अनुसरण करता है, वह महान् है निजगुण अरु पर औगुण ढाँकै, चानिज धर्म वढावै। कामादिक कर वृपत त्रिगत, निज परको सुदृढ़ावै ।। चौथी ढाल्म वैयक्तिक और सामाजिक जीवनके विकासकी अनेक भावनाएँ अकित है। कवि आत्मविकासका साधन बतलाता हुआ कहता है-रागद्वेप करतार कथा कवहूँ न सुनीजै आगे पुनः कहता है-'धर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये इन पद्योमे जीवनको उन्नत बनानेवाले सिद्धान्तोका कथन है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253