Book Title: Hindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 185
________________ प्रकीर्णक कान्य ससारके पदार्थोंमे लिस कराती है, परन्तु दूसरेके दुःखको देखकर द्रवीभूत हो जाना और ममतावश उसके कष्ट निवारणके लिए तत्पर हो जाना जीवनकी श्रेष्ठ प्रवृत्ति है। अन्यके संकटको दूर करनेवाली ममता जीवनमें मुख उत्पन्न करती है, अतएव ग्राह्य है। लोभवश किसी वस्तुको लेनेकी प्रवृत्ति करना तथा धन एकत्रित करनेके लिए समाजका शोषण करना, जघन्य प्रवृत्ति है। यद्यपि लोमके प्रत्यक्ष दोपोसे प्रत्येक व्यक्ति परिचित है, किन्तु यह नैसर्गिक प्रवृत्ति अनेक प्रयत्न करनेपर भी नहीं छूटती है । अतएव कवि कहता है कि तप करनेका लोभ उपादेय है, इस प्रवृत्तिसे जीवका सच्चा विकास होता है, और समष्टि एवं व्यष्टि दोनोके हितके लिए इस प्रकारका लोभ ग्राह्य होता है। जब हम आत्म-शोधनके लिए लालायित रहते है, उस समय हमारे द्वारा लोकका मंगल तो होता ही है, साथ ही हम अपना मी मंगल कर लेते है। प्रायः देखा जाता है कि अन्य व्यक्तियोके साथ कलह एवं संघर्ष करनेकी प्रवृत्ति हममे निसर्गतः रहती है। लाख प्रयत्न करनेपर विरले व्यक्ति ही इस प्रवृत्तिका परिष्कार कर पाते हैं। कवि इस प्रवृत्तिके परिकारका उपाय बतलाता हुआ कहता है कि कपायो-कोष, मान, माया और लोभके साथ द्वन्द्व करना उपादेय है । मानव कमजोरियोका दास है, अपनी भूलो और प्रवृत्तियोको वह सहसा रोकनेमे असमर्थ है; अतएव वह कषायोके साथ द्वन्द्व, संघर्ष और कलह करता हुआ अपने जीवनको आनन्दमय बना सकता है। यह निश्चय है कि विकारोंको शनैः शनैः सुप्रवृत्तियोंके अभ्याससे ही रोका जा सकता है। इसी वातको कवि स्पष्ट करता है क्रोध सुई जु करै करमौं पर, मान सुई दिढ़ मान बढ़ावै। माया सुई परकष्ट निवारत, लोम सुई तपसौं तन तावै॥

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