________________
१७३
आध्यात्मिक रूपक काव्य नाक सुरनि पानी झरै, वहे श्लेषमा अपार । गूधनि करि पूरित रहै, लाजै नहीं गवार । तेरी छींक सुनै जिते, कर न उत्तम काज | सूदै तुह दुर्गन्धमें, तऊ न आवै कान ॥ वृपभ ऊ नारी निरख, और जीव जग मॉहि । जित तित तोको छेदिये, तोऊ लजानो नाहि ॥
X
कानन कुण्डल शलकता, मणि मुक्ताफल सार। जगमग जगमग है रहै, देखै सब संसार । सातों सुरको गाइबो, अद्भुत सुखमय स्वाद । इन कानन कर परखिये, मीठे मीठे नाद ॥ कानन सरभर को करै, कान बड़े सरदार । छहों द्रव्य के गुण सुनै, जानै सवद विचार ॥
यह एक सरस आध्यात्मिक रूपक काव्य है। इसका सुजन कवि भगवतीदासने मानवात्माकी उस चिरन्तन पुकारको लेकर किया है, जो मधुबिन्दुक चौपाई
मानव-मनमें अनादि कालसे व्याप्त जड़ीभूत अन्ध
" तमिला-पुब्जका विदारण कर चिर-अमर आनन्दभासके अन्वेषणकी आकाक्षासे व्याप्त है। कविने रूपकात्मक कथानकमे अपने अन्त प्राणोका स्पन्दन भर कर शाश्वत वास्तविकताका अक्षम स्वरूप कलात्मक रूपसे प्रस्फुटित किया है। इसके मममें निहित चिरन्तन सत्य सदा सूर्यकी तरह प्रोज्ज्वल रहेगा, युग या समय-विशेषका प्रकोप श्रावणके मेघोंके समान इसके उज्ज्वल स्वरूपको क्षणभरके लिए भले ही अन्धकारमय बना दे, परन्तु इसका दिव्य सन्देश सदा ही मानवताका पाठ पढ़ाता रहेगा । कविने अतीन्द्रिय आनन्दका निरूपण करते हुए नाना मनोद्वेग एवं मायामय हत्यपटोंका विवेचन बड़े ही हृदय-आय ढंगसे किया है।