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आध्यात्मिक रूपक काव्य
भेदज्ञान आरा स दुकारा करे ज्ञानी जीव, आतम करम धारा भिन्न भिन्न चरचै । अनुभौ अभ्यास लहे परम धरम गहे, करम भरम का खजाना खोलि खरचै ॥ यों ही मोक्ष मग धावै केवल निकट आवे, पूरण समाधि जहाँ परमको परचै । भयो निरदोर याहि करनो न कछु और, ऐसे विश्वनाथ ताहि वनारसी भरचै ॥
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जड कमोंके ससर्गसे आत्माकी विभिन्न प्रकारकी लीलाएँ हो रही हैं । निश्चय रूपसे वास्तविक दृष्टिकोणसे आत्मा एक होनेपर भी व्यवहारमे अनेक रूप है तथा अनेक होनेपर भी एक रूप है । ससारसे कम के बन्धन ने आत्माको इतना विकृत और विचित्र कर दिया है, जिससे इसकी यथार्थ अवस्थाका चित्रण नहीं किया जा सकता है । यह आत्मा कर्त्ता भी है और अकर्त्ता भी । कर्मफलका भोक्ता भी है और अभोक्ता भी व्यवहारसे पैदा होता है और मरता है, किन्तु निश्चयसे न पैदा होता है और न मरता है । व्यवहार रूपमे बोलता है, विचारता है, नाना प्रकार के सिंह-शूकर-श्वान-शृगाल-काक-कीट आदि रूपोको धारण करता है । वस्तुतः यह आत्मा अचेतन कर्मोंके ससर्गसे नट बन गयी है, इसी कारण अनेक aurat धारणकर नानाप्रकारकी क्रियाओको किया करती है । समयआत्मा के विभिन्न नटरूपो तथा उसके वास्तविक स्वरूपका विश्लेषण होनेसे ही इस ग्रन्थका नाम समय-सार नाटक रखा है । कवि आत्माकी इसी नट-वाजीका निरूपण करता हुआ कहता है
एकमे अनेक है अनेक ही में एक है सो, एक न अनेक कछु कह्यो न परत है । करता करता है भोगता अभोगता है, उपने न उपजत मरे न मरत है ॥
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