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मनुष्यों के साथ मित्रता का बर्ताव करने लगे। सारांश यह, कि अब वे 'विश्व-बन्धुत्व' की स्थिति में पहुँच गये।
वे, रूखा-सूखा जैसा मिल जाता, वैसा अन्न खाते, जमीन पर सोते, एक ही कपड़ा पहनते और सर्दी-गर्मी के कष्ट सहन करते। इतना सब होने पर भी, वे अपने चित्त में कभी दुःख का अनुभव न करते थे और न सुख ही मानते थे। अपने मन से, सब की भलाई चाहते थे । जो कुछ अपने मुँह से बोलते, वह केवल सच्ची और मीठी-बात ही होती थी। इस तरह, पवित्र-जीवन व्यतीत करने के लिये ही, वे एक स्थान से दूसरे स्थान में भ्रमण करने लगे । मुनियों के ऐसे भ्रमण को 'विहार' कहते हैं।
. : १४ : इस तरह घूमते हुए, थोड़े दिनों के बाद ही उन्हें 'केवलज्ञान' हो गया। केवलज्ञान होने का मतलब है-जगत का सच्चा और पूरा-ज्ञान हो जाना। अब, उनकी सब जगह पूजा होने लगी।
श्री नेमिनाथजी को, केवलज्ञान के प्राप्त होने से जो आनन्द मिला, उस आनन्द से दुनिया को लाभ पहुंचाने तथा अन्य-मनुष्यों को उस आनन्द की प्राप्ति